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भारत कैसे बनेगा विश्वगुरू…???

इस सृष्टि पर पहले मनुष्य जीवन नहीं था, अलग अलग प्रकार के जानवर थे और बंदर की उत्क्रांत अवस्था यह मानव है ऐसा बताया जाता है। पर ब्रह्मा तन के मुख कमल से हम आत्माओं के पिता परमपिता परमात्मा शिव जो बता रहे हैं वह सत्य कुछ अलग ही है। जैसे किसी बीज से वही वृक्ष निर्माण होता है जो बीज बोया है वैसे मानव से मानव ही जन्म लेता है। आम का बीज बोया तो अमरूद का पेड़ नहीं निकलता, यही सत्य मानव के प्रजाति को भी लगता है। सिर्फ मानव की जो जीवन की अवस्थाएं हैं उनमें फर्क पड़ा है। शुरूआत में मानव देवमानव था वह गुणों के कारण वा जीवन में उसने जो मूल्य अपनाये उसके अनुसार उन्नत अवस्था में था। उनकी यह जो अवस्था थी वह हम सब आत्माओं के पिता परमपिता शिव परमात्मा ने जो ज्ञान इन आत्माओं को स्वर्ग में आने के पूर्व जन्म में दिया था उसके कारण बनी थी।

द्वापार के बाद आत्मा देहभान मे आने से दृष्टि, वृत्ति, कृति बदलती है और उसके अनुसार व्यवहार भी बदलते है। इसको ही आदम और इव्ह ने जहरीला फल खाया ऐसा बताया जाता है। सतयुग, त्रेतायुग मे सबका व्यवहार आत्मिक स्वरूप में होता है। वहां हर एक का दृष्टिकोण आत्मिक होता है। इसलिए एक – दूसरे को आत्मिक स्वरूप में देखते है। मानो किसी का इस जन्म का काल पूर्ण हो गया तो उसे कहां जन्म लेना है इसका साक्षात्कार होता है और उस शरीर का स्वेच्छा से त्याग करके वह आत्मा नये शरीर मे प्रवेश करती है। शरीर छोडते वक्त उस आत्मा को दुख-दर्द नही होता है क्योंकि आत्मा और शरीर दोनों की अवस्था सतोप्रधान है। द्वापर से रावण का प्रवेश आत्मा में होता है इसका मतलब हम आत्मा है यही सब भूल जाते हैं और धीरे धीरे काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार आदि विकारों में आत्मा लिपटने लगती है। अब इन विकारों का मनुष्य के ऊपर इतना प्रभाव है की उसमें सच-झूट समझने का विवेक भी नष्ट हो गया है। कलियुग के अंत मे तो विकारों ने इतना हडकंप मचाया है की मनुष्य का विकार ही जीवन हो गया है। किसी को इसके बारे में बताया तो आपका मजाक उडायेंगे और कहेंगे, कि यही तो जीवन का मजा है, इसके बिना जीवन बेकार ही है।
द्वापर के पहले भारत में देवताओं का राज्य था और रावण के आसुरी मत से वह राज्य छीना गया। वैसे रावण ये कोई मनुष्य या असुर नहीं है ये तो विकारी विचारों से चित्त को बेहोश करने वाली प्रवृत्ती है। लेकिन इसका सही मतलब बिना समझे लोग हर वर्ष रावण का बूत बनाकर जलाते रहते हैं। पीछले वर्ष से रावण का इस साल का बूत आपको बड़ा दिखाई देता है। फिर रावण के नाम पर लोग नशा छोडऩे के बजाए नशापान भी करते हैं। तो यह रावण को जलाने के बजाए उसको अपनाना हुआ ना? भारत में जो भा है उसका अर्थ प्रकाश है और देवीदेवता चमकते हुए आत्मिक स्वरूप मे रहने का वह मिसाल है। अनेकों ने भारत का राज्य छीना यह भारत का इतिहास बताता है। पहले तो दैहिक वृत्तियों ने छीन लिया, बाद में मुस्लिम राजाओं के आक्रमण होते रहे, अंग्रेज आ गये, पोर्तुगीज आ गये और सीधा व्यवहार करने वाले राजा-महाराजाओं का राज्य उन्होंने छल-कपट करके छीन लिया।

अब फिर से गुप्त रीती से हम आत्माओं के परमपिता शिव ईश्वरीय ज्ञान दे रहे हैं और उस उन्नत अवस्था मे ले जा रहे हैं। इसको ही प्राचीन राजयोग कहा जाता है जहां निराकार भगवान इस दुनिया का लगाम अपने हाथ में लेते हैं। शिवजी का सब धर्मों में गायन है। उनको कोई प्वाइंट आफ लाइट कहते हैं, कोई एकोहंकार कहते हैं, कोई नूर कहते हैं, कोई अल्लाह कहते हैं तो कोई ईश्वर कहते हैं। वह सबका परमप्यारा है, जान से प्यारा है क्योंकि वह आने के बाद रावण की जंजिरों से छूटने का मंत्र देता है और सही मायने में पूरी दुनिया को सच्ची आजादी देता है। जो शिव का ज्ञान धारण करते हैं उनको ही महारथी या महावीर कहते हैं, शिवधनुष उठाने वाले कहते हैं। स्थूल धनुष थोडी मेहनत करके कोई भी उठा सकता है लेकिन इस धनुष के लिए चारों तरफ से सदा चौकन्ना रहना पडता है। क्योंकि यह धनुष्य उठाते ही माया चारों तरफ से विकारों के बाण छोडने के प्रयास में रहती है। लेकिन विजय माया की होती नहीं, शिवसाथियों की ही होती है।
शिवसाथियों ने अभी विश्व के करीबन सब देशों में अपना झंडा फहराया है और वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत विश्वगुरू के रूप में सबके सामने खड़ा रहेगा। क्योंकि भारत के साथ भगवान शिव चक्र घुमाने के लिए खड़े हैं… ब्रह्मा का तन लेकर वह चक्र घुमा रहे हैं। -अनंत संभाजी