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Experience with dadi prakashmani ji

दादी प्रकाशमणि जी – अनुभवगाथा

आपका प्रकाश तो विश्व के चारों कोनों में फैला हुआ है। ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने के पश्चात् 1969 से आपने जिस प्रकार यज्ञ की वृद्धि की, मातृ स्नेह से सबकी पालना की, यज्ञ का प्रशासन जिस कुशलता के साथ संभाला, उसे तो कोई भी ब्रह्मावत्स भुला नहीं सकता। आप बाबा की अति दुलारी, सच्चाई और पवित्रता की प्रतिमूर्ति, कुमारों की कुमारका थी। आप शुरू से ही यज्ञ के प्रशासन में सदा आगे रही। मम्मा के साथ-साथ आपको भी सब मुन्नी मम्मा के नाम से ही पुकारते थे। आपने शुरू में पटना, मुंबई तथा अन्य कई स्थानों पर अपनी सेवायें दी। बाबा के अव्यक्त होने के बाद देश-विदेश में अपनी अथक सेवायें देते हुए, सभी ब्रह्मा वत्सों को एकता के सूत्र में पिरोकर,हर एक की विशेषता को कार्य में लगाते हुए अनेकानेक यादगार कायम किये। आप सदा सबके दिलों में अमर हैं। आपने 25 अगस्त, 2007 को अपने भौतिक देह का त्याग कर नई दुनिया का प्रारंभ करने निमित्त एडवांस पार्टी में अपना पार्ट नूँध लिया।

दादी प्रकाशमणि जी, अपने लौकिक-अलौकिक जीवन का अनुभव इस प्रकार सुनाती हैं-

श्रीकृष्ण की भक्ति

मैं सात-आठ वर्ष की थी तब से ही, कोई दिन ऐसा नहीं आया जो मैं श्रीकृष्ण की पूजा ना करूँ, भले ही स्कूल में भी जाती थी। मुझे छोटेपन से रहता था कि मैं मीरा बनूँगी। मीरा की कहानी मैं जानती थी। “मेरे घर के बिल्कुल पास में श्रीराधा-श्रीकृष्ण का मन्दिर था। उसमें मैं सुबह-शाम जरूर जाती थी, पूजा करती थी। रात के समय श्रीकृष्ण को झूले में झुलाती और फिर झूले से उठाकर पलंग पर सुलाना, यह मेरा नित नियम था। मेरे को श्रीकृष्ण से बहुत ही प्यार था। मुझे महसूस होता था, श्रीकृष्ण भी मुझे बहुत प्यार करता है। राधे भी मुझे बहुत प्रिय लगती थी। मैं रोज भागवतभी पढ़ती थीं जिसमें श्रीकृष्ण के चरित्र हैं। सिन्धी लोग गुरुनानक को मानते हैं इसलिए सुखमणि और ग्रंथसाहब भी पढ़ते हैं। उस समय स्कूल में रिलीजियस पीरियड होता था। छोटेपन में पहले जप साहेब पढ़ाया, फिर सुखमणि पढ़ाई, फिर गीता पढ़ाई। यह सब पढ़ने में मुझे बहुत मजा आता था। भागवत्, रामायण आदिभी ज्ञान में आने से पहले पढ़ लिया था।

कभी किसी से डांट नहीं खाई

स्कूल में रिलीजियस पीरियड में मैं हमेशा फर्स्ट आती थी, मुझे कम से कम 75% या 80% मार्क्स अवश्य मिलते थे। मुझे पढ़ाई से भी बहुत प्यार था। हमेशा पहला, दूसरा या तीसरा नंबर लेती थी इसलिए स्कूल में सभी टीचर्स का मुझसे बहुत प्यार था। खेल- कूद में इतना समय नहीं देती थी। लौकिक घर में माता-पिता और मैं – हम तीन ही थे। बहनें बड़ी थीं, वो अपनी ससुरालों में रहती थी। मैं ना कभी बाज़ार की कोई चीज़ खाती थी, ना कोई ऐसी सहेलियाँ थी। फैशन का शौक नहीं था। कोई बाहर का बुरा संग मुझे नहीं था। सहेलियाँ आती भी थी तो पढ़ाई के नाते से। एक बड़ा मैदान था, वहाँ गर्मी में शाम को थोड़ा खेलते थे, नहीं तो घर में ही रहते थे। घर में माता- पिता भी सत्संग में रुचि रखने वाले थे। मुझे स्मृति नहीं कि कभी माता-पिता की डांट खाई हो या कभी माँ ने थप्पड़ मारा हो या कभी घर में लड़ाई हुई हो, कभी नहीं। गुस्सा कभी घर में नहीं होता था। तीसरी कक्षा से छठी कक्षा तक हमने साल में दो-दो परीक्षायें दी। हर छह मास में मैं अगली कक्षा में चली जाती थी। जब ज्ञान में आई तो 14 साल की थी और मैट्रिक पढ़ ली थी। मुझे याद नहीं कि मैंने कभी झूठ बोला हो या चोरी की हो। मुझे स्मृति नहीं कि मैंने मुख से कभी गाली बोली हो या किसी ने मुझे बोली हो, कभी नहीं। मैंने कभी सिनेमा नहीं देखा। इसलिए बुरी बातों का कभी असर नहीं रहा।

श्रीकृष्ण के दीदार की इच्छा 

लौकिक बाप स्वामी गंगेश्वरानन्द के चेले थे।उनके अंदर पवित्रता का बहुत पहले से संस्कार था। वो ज्योतिषी भी थे। भले ही बिजनेसमैन थे पर शाम को घर आने पर शास्त्रों की कोई ना कोई बात अवश्य बताते थे। स्वामी जी के पास जाते थे तो हमें ज़रूर लेके जाते थे। ज्योतिषी होने के कारण उसको मालूम था कि यह बेटी शादी नहीं करेगी, मीरा बनेगी। भले ही उन्होंने हमें कारण नहीं बताया पर सबको कहते थे, यह बेटी शादी नहीं करने वाली है। लौकिक बहनों के ससुराल पक्ष के लोग फैशनेबल और खाने-पीने वाले थे। वे मुझे बुलाते थे क्योंकि घर में छोटी मैं ही थी। वे सोचते थे, घुमाने-फिराने के लिए यही एक है

पर मैं उनके संग में जाती नहीं थी। वे कहते थे, आज यहाँ चलो, वहाँ चलो, मैं कहती थी, मेरा तो मन्दिर में जाने का समय है। कभी कहते थे, आओ, हमारे घर रहो। मुश्किल से कभी आधा दिन जाती थी, फिर भाग आती थी। कहने का भाव है कि हम  छोटेपन से ही ऐसे संस्कारों वाले थे जो बाद में उन संस्कारों की बहुत मदद मिली। मुझे याद नहीं कि मैंने कभी माँ को कहा हो कि मुझे इस फ्राक की दिल है, लेके दो। मैंने कभी यह कहा हो कि यह खाने की दिल है, बनाके दो। छोटेपन से यह स्लोगन याद रहा – “माँगने से मरना भला”, “इच्छा मात्रम् अविद्या” । ज्ञान क्या होता है, यह मैं नहीं जानती थी पर इच्छा रखना अज्ञान है, यह मैं जानती थी। मैं कहती थी, गोपियाँ थोड़े कभी इच्छा रखती थी, मीरा थोड़े इच्छा रखती थी, मम्मी को देना होगा, आपे दिलायेगी, खिलायेगी, मैं क्यों इच्छा रखूँ, मैं क्यों माँगूँ? कभी लोभ-लालच नहीं आया। छोटेपन से मेरे दिल में दो इच्छायें जरूर थीं कि या तो मैं विष्णु का दीदार करूँ या श्रीकृष्ण का दीदार करूँ। कब मुझे भगवान विष्णु का या भगवान कृष्ण का दर्शन होगा, यह मुझे बहुत लगन थी। उस समय तो कृष्ण को भगवान मानते थे।

श्रीकृष्ण का दीदार हुआ

       जब मैट्रिक पढ़ रही थी, सारे सब्जेक्ट इंग्लिश में थे, वो स्कूल था ही इंग्लिश पढ़ने का, मैं एक साल उसमें पढ़ी। उसी स्कूल में मम्मा मेरे साथ थी। एक ही बैंच पर हम बैठते थे। मम्मा से क्लासफैलो जैसा स्नेह था। मम्मा बहुत मॉडर्न, फैशनेबल थी। बड़े-बड़े बाल थे, बहुत सुन्दर थी, बॉम्बे की इंग्लिश पढ़ी हुई थी। मम्मा बहुत स्वीट थी, हमें बहुत अच्छी लगती थी। सन् 1936 की बात है, दशहरे और दीवाली की छुट्टियाँ हुई थी। तीन सप्ताह की छुट्टियाँ होती थीं, इस कारण बहुत समय मिलता था। एक सुबह की बात है, हम सोई पड़ी थी अपने पलंग पर। दीवाली के समय थोड़ी ठण्डी शुरू हो जाती है। मैंने अपने सामने एक सुन्दर, बड़ा शाही बगीचा देखा। बगीचे में बहुत सुन्दर लाइट- लाइट चारों तरफ थी। दूर-दूर बड़े फूल-फल लगे थे। (एक बात बीच में सुनाती हूँ, मैं चाहती थी, ऐसा बगीचा मैं कभी इस दुनिया में देखूँ। एक बार मैं ऑस्ट्रेलिया में गई तो वहाँ एक बड़ा शाही बगीचा देखा, ऐसा मानो जिसमें ग्रीन गलीचा बिछा हो। मैंने कहा, ऐसा तो मैंने स्वर्ग का बगीचा देखा था) तो सुबह-सुबह जो बगीचा देखा था, उसके बीच में एक लाइट आई, उस लाइट के बीच छोटा-सा श्रीकृष्ण, बांसुरी लेकर, नाचता-कूदता, बहुत दूर से मेरे समीप आया। मुझे बहुत खुशी हुई। मैं नींद में थी। मैं खुशी से देखती रही। उसी के पीछे सफेद वेशधारी फरिश्ता खड़ा था। हम छोटेपन में सत्यनारायण का व्रत रखते थे और उस टाइम में सुनाते थे, भगवान बूढ़े वेश में आते हैं। जब श्रीकृष्ण के साथ सफेद वेशधारी फरिश्ता देखा तो मुझे ऐसा लगा जैसे भगवान सत्यनारायण को देख रही हूँ। मुझे श्रीकृष्ण भी प्यारा लग रहा था, उसे देखूँ फिर सत्यनारायण को भी देखूँ। मुझे दोनों बहुत प्यारे लगे। इतने में जाग पड़ी, दोनों गायब हो गये।

मुझे लगन लगी कि फिर दीदार हो

     मैंने बचपन में सुना था, भगवान का दीदार हो तो किसी को बताना नहीं चाहिए, यह गूंगे की मिठाई अंदर खानी चाहिए। मैंने किसी को बताया नहीं पर अंदर बड़ी इच्छा थी कि फिर मैं कब देखूँ। फिर दिखा ही नहीं। फिर कोठे पर बैठ गई श्रीकृष्ण की माला लेकर, श्रीकृष्ण, तुम फिर आओ, फिर आओ, आये नहीं। बहुत माला फेरूँ, ध्यान करूँ मूर्ति का, मंदिर में जाऊँ, आये ही नहीं लेकिन मेरी दिल बहुत थी। मेरी एक क्लासफैलो थी, वह ओम मण्डली में जाती थी। दो-तीन दिन बाद, मैं उसके घर गई। वह ध्यान में ऐसी बैठी थी कि आँखें ही ना खोले। उसका नाम था लीला। मैं कहूँ, लीला, लीला, बस वह मुसकराए, यूँ हाथ उठाये पर जवाब ना देवे। आँसू बहाए पर मुझे जवाब ना दे। मुझे मालूम नहीं था, यह क्या है? मैंने उसकी मम्मी को कहा, मुझे तो लीला ने बुलाया है पर बात ही नहीं करती है, ठीक है, मैं चली जाती हूँ। मम्मी ने कहा, बेटी, मुझे भी पता नहीं है, जब देखो ध्यान में बैठी रहती है, क्या इसको हुआ है, पता नहीं है। दो- तीन दिन से इसकी यह हालत है। फिर उसने आँखें खोली, बोली, चलौ रामा (मेरा लौकिक नाम), तुमको श्रीकृष्ण का दीदार कराके लाती हूँ। मैंने कहा, लीला,क्या नशा चढ़ा है! श्रीकृष्ण का दीदार कोई मासी का घर है! कहती है, कृष्ण का दीदार कराऊँगी, मैं कितनी पूजा करती हूँ, होता ही नहीं है, अब तुम मुझे दीदार कराओगी! जैसे बच्चियाँ हँसी-मजाक करती हैं, ऐसे मैंने कहा। बोली, हाँ, कराऊँगी। मैंने कहा, चलो। बोली, आज तो शाम हो गई, कल कराऊँगी। बाबा ने पहले-पहले सत्संग किया भाऊ विश्व किशोर के घर,अपने घर नहीं। वो घर पाँच-सात मिनट की दूरी पर था। बाबा सुबह 10 बजे सत्संग करता था क्योंकि भाई लोग तो दुकानों आदि पर जाते थे, मातायें 10 से 11 बजे तक फ्री होती थी। थोड़ा बड़ा कमरा था, इधर पलंग, उधर पलंग, बीच में गद्दी थी, वहाँ सत्संग होता था। जैसे पाठशाला शुरू करते हैं ना, ऐसे यज्ञ की स्थापना गीता पाठशाला की तरह हुई है।

पिताजी ने ओम मण्डली में जाने की आज्ञा दी

हमारा नियम था, मम्मी-पापा की छुट्टी के बिना कभी दरवाजे से बाहर नहीं जाती थी। कभी मम्मी- पापा को सामने जवाब नहीं देती थी, आज्ञाकारी रहती थी। मम्मी-पापा का प्यार भी रहता था, कंट्रोल भी रहता था। रात को जब पापा घर पर आये तो बोले, बेटी, तुमको छुट्टी है। यहाँ एक दादा हैं, वे गीता पर सत्संग करते हैं, मातायें जाती हैं, सुना है, थोड़ी ओम की ध्वनि करते हैं, स्कूल तो तुम्हारा बंद है, क्यों नहीं सत्संग करने जाओ। मैंने कहा, वो दादा हैं कौन? फिर मुझे बताया। मैंने भी कहा, आज मैं लीला के पास गई थी, उसने भी कहा, चलो, वहाँ श्रीकृष्ण का दीदार भी होता है। पापा ने कहा, हाँ, ओम ध्वनि भी होती है, तुम जाओ बेटी, जाओ। तुम्हारा कृष्ण से प्यार है ना, जा बेटी। फिर मैं सुबह में गई।

मैं ध्यान में चली गई

जब मैं सत्संग में पहुँची, बाबा ओम की ध्वनि लगा रहे थे, वह ध्वनि बहुत अच्छी थी। मेरी दृष्टि बाबा के मस्तक पर पड़ी। मुझे लगा, मस्तक से लाइट निकल रही है। मैंने मन में कहा, यह तो सत्यनारायण भगवान जैसा ही है, जो सपने में आया था। यह सपने में क्यों आया, यह कौन है, यह सत्यनारायण भगवान है क्या? ऐसे सोचते-सोचते मैं ध्यान में चली गई। वो ही श्रीकृष्ण, वो ही बगीचा, वो ही लाइट, वो ही सत्यनारायण भगवान – बिल्कुल जो सपने में देखा, वही फिर देखा और कितनी ही देर ध्यान में बैठी रही। कब सत्संग पूरा हुआ, मुझे पता नहीं। सारे उठ गये। कोई ने मुझे उठाया होगा। फिर कुछ मैं जागी। मैं खो गई कि मैं कहाँ बैठी हूँ, सब तो चले गये, मुझे आई लज्जा, मैं लज्जा के मारे उठकर भागने लगी। बाबा दूसरे कमरे में बैठे थे, मुझे बुलाया। मुझे विचार आया,यह सत्यनारायण भगवान है, इनको देखूँ पर बाहर से मैं डरूं कि बाबा के पास कैसे जाऊँ। बाबा ने बुलाया, आओ बेटी, आओ। तब भी मैं ध्यान में ही थी। बाबा के पास गई तो भी सत्यनारायण भगवान को ही देख रही थी और घड़ी घड़ी श्रीकृष्ण भी सामने आ रहा था। ऐसा ही मैं देखती रही। घर आई तो भी ध्यान में। रात को नींद नहीं आई। फिर तो मैं छत पर अकेली बैठ जाती थी और घंटों ध्यान में चली जाती थी। मेरी माँ समझे, पता नहीं बेटी को क्या हुआ है। न खाती है, ना पीती है, ना बोलती है, बस, जब देखो, ऐसे समाधि लगाकर बैठी रहती है। वो मुझे उठाती थी पर मेरा मन होता था, मैं बाबा के पास जाऊँ पर सत्संग में तो 10 बजे से पहले कोई जाता ही नहीं था। वहाँ भी जाऊँ तो ध्यान में बैठी रहूँ। फिर घर में आऊँ तो भी ध्यान में बैठी रहूँ। ऐसे करते, कितने दिन तो मैं ध्यान में ही रही, बस, स्वर्ग को, श्रीकृष्ण को, सत्यनारायण को, बाबा को, गोप-गोपियों को, रास को देखती रहती थी। खूब मजा आता था। खूब मस्ती में रहती थी। लगन बढ़ती रही। पापा भी पूछता था, क्या हुआ है? मैं कहती थी, कुछ नहीं, कुछ नहीं। फिर इतने में दीवाली आई, ये बातें दीवाली से दो-तीन दिन पहले की हैं, इसलिए मैं कहती हूँ, मेरा अलौकिक जन्म दीवाली का है। फिर दीवाली की छुट्टियाँ पूरी हुई, मन ही ना करे स्कूल में जाने का पर स्कूल में तो जाना ही था। स्कूल में मम्मा भी आई। हमने मम्मा को बताया। उस समय मुझे मम्मा से भी ज्यादा लगन थी। मैंने घर आकर कहा, मैं स्कूल में नहीं पढ़ेंगी। पापा आँख दिखाने लगे। मैंने कहा, मैं तो बनूँगी गोपिका, मुझे तो राधा-कृष्ण के साथ रहना है, मुझे स्कूल जाना नहीं है। अब वो जानते तो थे, कहा, अच्छा बेटी, जैसी तुम्हारी इच्छा। मुझे तो खुशी हो गई, अच्छा हुआ, छुट्टी मिली। दीवाली के बाद छमाही पेपर होते हैं स्कूल में। मैंने कहा, मुझे पेपर देने नहीं हैं। मेरे लिए तो बाबा, ओममण्डली, बस, यही सब कुछ हो गया।

ज्ञान की मस्ती चढ़ी

बड़ी दीदी मेरी चाची लगती थी। उनका घर हमारे मोहल्ले में था। उनको मेरे से भी ज्यादा लगन थी। वो तो मेरे से भी पहले ज्ञान में आई थीं। क्वीन मदर अपने घर में थी, दीदी अपनी ससुराल में थी। हम और दीदी बहुत मस्ती में थी, ओम मण्डली में साथ- साथ आती-जाती थी। अर्जुन दादा की माँ भी मेरी चाची थी। आनन्द किशोर मेरा चचेरा भाई है। हम सब एक ही मोहल्ले में रहते थे। हम सब मिलकर बाबा की बातें करते थे, दूसरी कोई दुनिया नहीं। मम्मी- पापा को भी फेथ था कि चाची (दीदी) के साथ आती- जाती है। हमारी तो लगन बढ़ती गई। फिर तो बाबा ने भाषण, गीत सब सिखाया। ज्ञान की इतनी मस्ती थी जो दुनिया की अन्य कोई बात याद ही नहीं रही।

पेंट-कोट वाले से शादी करेगी या पीताम्बरधारी से

हम छोटे थे, रंगीन कपड़े पहनते थे। सिन्धियों की लड़कियाँ जेवर भी पहनती थी। बाबा का घर नीचे बहुत बड़ा था, ऊपर छत पर जैसे बरसाती कमरा होता है, ऐसे बाबा का एकांत का कमरा था, बाबा उस कमरे में ऊपर रहते थे। एक दिन बाबा वहाँ थे और हम तीन-चार सखियाँ उधर आ रही थी। लीला,किकनी और मैं थी। बाबा का घर बिल्कुल बाज़ार के बीच में था। दुकान वाले भी यूँ-यूँ देखते थे। हम नीचे पहुँचे तो बाबा ने कहा, बच्चियों को सीधा ऊपर भेज दो। हमें मन में आया, बाबा ने ऊपर क्यों बुलाया, हम तो डर गईं, पता नहीं क्या काम है बाबा को। बाबा के पास पहुँचे। बाबा ने पूछा, बेटी, तुमको पेंट-कोट वाले से शादी करनी है या पीतांबर वाले से? यह सीधा सवाल बाबा ने हमारे से शुरू किया। पहले तो हम समझे नहीं, पेंट-कोट क्या होता है, पीतांबर क्या होता है, शादी की बात क्यों बाबा पूछता है। फिर पूछा, मैं पूछता हूँ, तुमको किसी लड़के से शादी करनी है या श्रीकृष्ण से? मैंने कहा, मेरी तो गिरधर से शादी हो गई, मुझे किसी लड़के से थोड़े शादी करनी है। बाबा ने कहा, फिर यह जेवर क्यों पहना है, रंगीन कपड़ा क्यों पहना है? यह वो पहनते हैं जिनको लड़कों को पसंद करना होता है। वो दिन, यह दिन, ना हमने जेवर पहना, ना रंगीन कपड़ा पहना।

बोर्डिंग खोलने की योजना

शुरूआत हुई दीवाली पर, बाबा गये कश्मीर में अप्रैल या मई में। फिर बाबा तीन मास तक आये ही नहीं। बाबा ने ज्ञान में आने से पहले लौकिक स्कूल के लिए एक बिल्डिंग बनाई थी, उसे ही ओम निवास कहा गया। स्कूल तो थोड़ा दूर बनाया जाता है ना। उन दिनों ब्रिटिश राज था, फॉरेनर्स के बंगले थे, कलेक्टर आदि के, उस तरफ यह स्कूल की बिल्डिंग थी। बाबा जब कश्मीर गया तो मम्मा को ही हेड बनाकर गया था। मम्मा हम सबसे बहुत होशियार थी, बहुत मीठा बोलती थी। बहुत अच्छा भाषण करती थी, बाजा बजाती थी। गाने में, डांस में बहुत होशियार थी। बॉम्बे की सीखी हुई थी। तो बाबा ने कश्मीर से लिखा, ओम राधे, मैं तब आऊँगा हैदराबाद में जब सत्संग में आने वाली माताओं के बच्चे बच्चियों को, जो स्कूल बन रहा है, उसमें रहने-पढ़ने के लिए बोर्डिंग खोलने की पूरी तैयारी कर लेंगी आप। कान्ट्रेक्टर से बिल्डिंग हाथ में लो, मुझे समाचार दो, फिर मैं आऊँगा। बाबा एक मास के बदले तीन मास जाकर कश्मीर बैठ गया। हम इतने पागल कि रोएँ, हमारी रात क्या थी, दिन क्या था, बस बाबा, बाबा और बाबा। हमारे नयनों में बाबा कभी इस रूप में आप्ता ही नहीं था। बाबा को देखना माना कृष्ण को देखना। हमारी आँखों में कृष्ण ही बसता था तो जिनकी आँखों में कृष्ण बसे, वो मस्तानी नहीं होंगी तो क्या होंगी?

बाबा ने विल की

फिर मम्मा ने पुरुषार्थ किया, मीटिंग की, मीटिंग में हम, दीदी आदि सब थे। हम लोगों ने कहा, हम स्कूल को चलायेंगे। फिर बाबा को लिखा, बाबा आया। फिर स्कूल की चीजें जैसे बैंच, पुस्तकें, कुर्सी, मेज सब खरीद किया। सन् 1937 में दीवाली के दिन बाकायदे हमने बोर्डिंग का उद्घाटन किया। बिल्डिंग में तीन हिस्से थे। दो हमारे लिए थे, एक में बाबा रहता था। लगभग 50 बच्चे थे। पाँच से दस वर्ष तक के थे। बाबा का लौकिक बेटा नारायण भी उन बच्चों में था। हम 14 वर्ष की थी, पढ़ाते थे 9-10 वर्ष वालों को। हमारी डिग्री कुछ नहीं, पढ़ाया सब कुछ। फिर एक साल के बाद बाबा ने विल किया। आठ के नाम पर किया – दीदी, अर्जुन की माँ रूक्मिणी, रूपवन्ती (मम्मा की मामी), महेन्द्र, मम्मा, प्रकाशमणि…। उस – विल में जसोदा, बृजेन्द्रा, बाबा का बेटा आदि सबके – साइन थे। बाबा की यह विशेषता देखो, विल में लौकिक – वाले किसी को नहीं रखा।

हम सब कराची गये

बाबा एक चतुराई करते थे। हैदराबाद और कराची के बीच ट्रेन से तीन घंटे का सफर था। ओम निवास स्टेशन के बिल्कुल पास था। हैदराबाद से ट्रेन रात को दो बजे जाती थी। बाबा अपने पास पैसा नहीं रखते थे पर बाबा को पता तो होता था, पैसा कहाँ रखा है। उस समय दो रुपये टिकट के होते थे, बाबा दो रुपये उठाते थे, हम सोये पड़े रहते थे। बाबा चुपचाप दरवाजा खोलकर चले जाते थे कराची। हम नींद से उठते थे तो बाबा है ही नहीं। अरे, कहाँ गयो हमारो गिरधर। फिर सब रोने लग जाते थे। बाबा अकेले जाते थे। कराची में शान्तामणि दादी के पिता का घर था। वो समझो अपना ही बंगला था। वहाँ से जाके चिट्ठी लिखते थे, बेटी, मैं दो दिन में आता हूँ। फिर वहीं रहकर ही बाबा ने कराची में बोर्डिंग खोलने का प्रबंध किया। पूरे एक साल के बाद हम कराची गये। फिर हैदराबाद लौटे ही नहीं। यह थी हमारे बचपन की कहानी।

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राजयोगिनी दादी प्रकाशमणि के प्रति राजयोगिनी दादी जानकी जी स्नेह और सम्मान भरे उद्‌गार इस प्रकार व्यक्त करती हैं – –

दादी जी बड़े विशाल दिल वाली, रहमदिल और स्नेह की सागर थीं। सदा सतगुरु बाबा की श्रीमत को सिरमाथे रख दादी जी संपन्न और संपूर्ण बन गई। प्यारे बाबा ने मातेश्वरी जगदंबा पर ज्ञान का कलश रखा। उन्हें पालना के निमित्त बनाया। जब बाबा अव्यक्त हुए तो दीदी मनमोहिनी और दादी जी को निमित्त बनाया। दीदी अव्यक्त हुईं तो दादी ने सब पार्ट बजाया। बाबा ने दादी को मीठा नाम दिया, ‘कुमारका’ । यह बाबा का प्यारा नाम था। आज दादी ‘जय जगजननी, सब दुखहरनी’ बन गई है। जैसे बाबा ने किया, वैसे दादी ने किया। कैसे किया, यह क्वेश्चन नहीं। हम भी कर सकते हैं। करना है तो अब करना है, कल पर नहीं रखना है। वाह दादी वाह! वाह बाबा वाह! वाह हम सबका भाग्य वाह! हम सबने दादी को आँखों से देखा है, बुद्धि से समझा है, दिल से अनुभव किया है। अब जी चाहता है कि हम भी दादी जैसा बन जायें।

दादी सदा ही सच्ची, मीठी कुमारी रही, अति पवित्र कुमारी। दादी को कुछ भी भूलना नहीं पड़ा। एक सेकंड में देह सहित सबसे नष्टोमोहा बन गई। हम बाबा के थे, हैं, फिर भी होंगे, यह निश्चय करने में कोई टाइम नहीं दिया जिस कारण फाउण्डेशन मजबूत रहा। दादी को ‘मुन्नी मम्मा’ कहते थे। उम्र में छोटी थी पर पालना सबकी बड़ी अच्छी करती थी। सन् 1977 में जब दादी लंदन आईं तो सबको ऐसे अनुभव हुआ जैसेकि बाबा आया है। उस समय 70-80 भाई-बहनें थे। दादी ने कहा, ये सब पूर्वजन्म में भारतवासी थे, सेवा अर्थ यहाँ जन्म लिया है। 

मैंने आँखों से देखा, दादी का स्वयं में विश्वास बहुत था। कुछ भी बात हो गई, स्वयं में विश्वास कम नहीं हुआ। बाबा में अति विश्वास और एक-दो में भी विश्वास बहुत रखा। दादी ने सबको आगे रखा। ‘पहले आप’ करने में बड़ी दिल, सच्ची दिल थी। कराची में जो ऑफिस थी, उसमें मम्मा बैठती थी, उस समय बाबा विश्वसेवा का डायरेक्शन दादी को देता था। झाड़ और गोले का चित्र बना तो दादी को बाबा ने कहा, ये फलानी-फलानी यूनिवर्सिटी में जाने चाहिएँ। बाबा ने जो डायरेक्शन दिया, दादी ने उसे फौरन अमल में लाया। जो सेवा का इशारा मिला, उसमें दादी ने कुछ भी सोचा नहीं, तुरंत किया। दादी, दीदी, भाऊ- इन्होंने कभी अपना नाम नहीं लिया। सदा इन्हों के मुख से निकलता, बाबा ने करा लिया। ऐसे बहुत कुछ देखने, सीखने, अनुभव करने को मिला है। हमारे जो बड़े निमित्त रहे हैं, उनकी दुआ अभी तक काम कर रही है। हमारे पूर्वज जो जड़ों में बैठे हैं, उनसे सारे वृक्ष को शक्तियों का जल मिल रहा है।

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दादी हृदयमोहिनी जी दादी जी के बारे में इस प्रकार लिखती हैं –

साकार बाबा इस बात पर बहुत ध्यान देते थे कि हर बच्चा, मुरली (ईश्वरीय महावाक्य) बहुत ध्यान से सुने। यदि मुरली सुनते समय किसी बच्चे को उबासी आ जाती थी तो बाबा तुरंत कहते थे कि इसको उठाओ, नहीं तो वायुमण्डल पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। बाबा मिसाल देते थे कि जैसे सीप पर जल की बूँद गिरती है तो मोती बन जाती है, इसी प्रकार आपकी बुद्धि पर भी ये ज्ञानामृत की बूँदें पड़ रही हैं, एक-एक बूँद ज्ञान-मोती का रूप धारण करती जा रही है। अतः हमारे में इतने मोती बाबा डालते हैं, भरपूर करते हैं मोतियों से, तो हमारा इतना ध्यान होना चाहिये। बाबा के सामने मुरली सुनने बैठे बच्चों में से, यदि किसी ने बाबा की मधुर शिक्षाएँ सुनकर चेहरे द्वारा प्रतिक्रिया प्रकट नहीं की तो बाबा कहते थे, यह कौन बुद्ध सामने बैठा है। इतना ध्यान बाबा बच्चों पर देते थे। बाबा का प्यार भी भरपूर था तो शिक्षायें भी भरपूर देते थे। मान लो, किसी बच्चे ने कोई ग़लती कर दी तो बाबा उसे व्यक्तिगत रूप से बुलाकर ग़लती नहीं सुनाते थे। मुरली में ही सब सुना देते थे कि महारथी बच्चे भी ऐसे-ऐसे करते हैं, बाबा के पास रिपोर्ट आती है। ग़लती करने वाला तो समझ

जाता था कि यह बात मुरली में मेरे लिए आई है। मुरली के बाद बाबा के कमरे में हम मुख्य-मुख्य भाई- बहनें जाते थे जिसे चैम्बर नाम से जाना जाता था। बाबा अपनी गद्दी पर विष्णु मुआफिक लेट-से जाते थे और हम सभी बच्चे पास-पास बैठ जाते थे। मान लो, बाबा ने मुरली जिस बच्चे के लिए चलाई, वह भी बाबा के सामने चैम्बर में आ गया तो उसका मन तो अंदर से खा रहा होता था कि बाबा अभी भी कुछ कह ना दें पर बाबा कभी नहीं कहते थे। जो कहना होता था, मुरली में ही कह देते थे। और यदि, वह हिम्मत करके बाबा के बहुत करीब भी चला जाये तो भी बाबा और ही प्यार करते थे। मुरली के बाद उस बात को कभी नहीं दोहराते थे कि बच्चे, तुमने अमुक ग़लती की है। फिर वह बच्चा भी भूल जाता था। इस प्रकार बाबा बहुत प्यार करते थे, ग़लती करने वाला बेधड़क होकर बाबा के सामने जा सकता था, पर उसको स्वयं ही इतना अहसास हो जाता था कि भविष्य में उस भूल को कभी नहीं दोहराता था। बाबा हँसा-बहला कर उस बात को समाप्त कर देते थे पर वह बच्चा पूरा बदल जाता था।

दादी जी दिल में कोई बात नहीं रखती थी

ऐसा ही दादी जी का स्वभाव था। यदि किसी छोटी बहन ने दादी जी को सुनाया कि आज मुझे बहुत रोना आया, फीलिंग आई आदि-आदि तो दादी कभी भी उसकी बात बड़ी बहन को सुनाकर उलाहना नहीं देती थी कि तुमने छोटी बहन के साथ ऐसा-वैसा क्यों किया। हाँ, दादी जी उस छोटी बहन को ऐसा प्यार देती थी जो उसके मन को पूरा ठीक कर देती थी। पर बड़ी बहन को बुलाए, फिर कहे, तुमसे छोटी बहन नाराज है, क्या करती हो, कभी नहीं। दादी क्लास कराती थी, सब कायदे-कानून समझाती थी पर व्यक्तिगत मिलन में सीधा नहीं कहती थी कि तुमने ऐसा किया है। इस प्रकार, दादी भी दिल में कुछ नहीं रखती थी। क्योंकि दिल में कोई भी बात घर कर जाए तो खुशी गुम हो जाती है। बाबा ने कहा, जीवन भले जाए पर खुशी न जाए।

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ब्रह्माकुमार रमेश शाह भाई जी, राजयोगिनी दादी प्रकाशमणि के बारे में अपने उद्‌गार इस प्रकार व्यक्त करते हैं – दादी प्रकाशमणि जी ने मुझे तथा मेरे लौकिक परिवार को अनेक रीति से संवारा और आज मैं तथा मेरा लौकिक परिवार जो भी ईश्वरीय सेवायें कर रहे हैं, उसके पीछे उनकी पालना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बातें तो अनेक हैं, समझ में नहीं आता, कहाँ से शुरू करें और कहाँ अन्त करें क्योंकि लेख के रूप में लिखने की एक मर्यादा होती है, फिर भी संक्षिप्त में दादी जी के साथ के संस्मरण लिखता हूँ।

पाण्डुरंग शास्त्री जी की सेवा

सन् 1952 में जब मेरा इस विश्व विद्यालय के साथ परिचय हुआ तब से इस के सभी अनन्य रत्नों का परिचय तो था ही और कइयों के परोक्ष व अपरोक्ष रूप से संपर्क में भी आया था। जब दादी जी और रतनमोहिनी दादी जी जापान गये, तब मुझे वह समाचार मिला और मैंने दादी जी को पत्र लिखा कि श्रीमद्भगवद् गीता पाठशाला के मुखिया पांडूरंग शास्त्री जी तथा उनके एक साथी जिनके साथ मेरा पहले बहुत घनिष्ठ संबंध था तथा जो बाहर के तत्वज्ञान के बहुत बड़े विद्वान हैं, भी जापान के विश्व धर्म सम्मेलन में आये हुए हैं, तो आप उनको भोजन के लिए रोज अपने पास बुलाना और उनकी ईश्वरीय सेवा करना। मैंने शास्त्री जी को भी मुंबई में कहा था कि आप और आपका साथी दोनों अकेले जापान जा रहे हैं, वहाँ आपको खाने की दिक्कत होगी और इसलिए मैंने ब्रह्माकुमारी बहनों को लिखा है। आप भी उनसे संपर्क करना। दोनों ने मेरी बात मानी और जापान की दस दिन की कांफ्रेंस में दादी जी ने और रतनमोहिनी दादी जी ने उन दोनों को अपने हाथ से पकाया हुआ पवित्र भोजन खिलाया और साथ ही यज्ञ का इतिहास भी बहुत विस्तार से सुनाया। परिणामरूप जब शास्त्री जी मुंबई आये तब

उन्होंने मुझे कहा कि रमेश भाई, ब्रह्माकुमारी संस्था का इतिहास सुनकर जब मैंने जाना कि पुरुष प्रधान समाज ने बहनों की आध्यात्मिक उन्नति में कितनी रुकावट डाली तो मेरी आँखों में पानी भर आया। बाद में हमेशा ही शास्त्री जी के साथ विश्व विद्यालय का स्नेह भरा संबंध रहा और शास्त्री जी प्यारे ब्रह्मा बाबा तथा प्यारी मातेश्वरी जी से मिलने भी आये। इस प्रकार से अपरोक्ष रूप से दादी जी के द्वारा सेवा हुई, उसका मैं साक्षी हूँ।

प्रदर्शनी की सेवा में दादी जी का सहयोग

बाद में दादी जी जब पटना में थे तो ब्रह्मा बाबा जब मुंबई आते थे तो दादी जी भी मुंबई का चक्कर लगाते थे परंतु इतना घनिष्ठ संबंध दादी जी के साथ नहीं था क्योंकि ब्रह्मा बाबा की उपस्थिति में ज्यादा कारोबार ब्रह्मा बाबा से ही होता था। परंतु जब सन् 1964 में हम सबने प्रदर्शनी के चित्र बनाने का कार्य शुरू किया तो पहला-पहला चित्र “सच्चा वैष्णव कौन” बनाया और ब्रह्मा बाबा के पास वह चित्र लिखत सहित प्रमाणित कराने के लिए भेजा। दो दिन में ही ब्रह्मा बाबा ने उस लिखत में सुधार कर दुबारा अच्छे अक्षरों में लिखवाकर भेजा तो मैंने ब्रह्मा बाबा को पत्र लिखा कि बाबा, ये आपके अक्षर नहीं हैं, ये किसने लिखा है? तो ब्रह्मा बाबा ने लिखा कि बच्चे, कुमारका बच्ची यहाँ है, उसी ने लिखत को सुधार करके भेजा है। तो हमने ब्रह्मा बाबा को लिखा कि जब हमारे चित्रों की लिखत कुमारका बहन को ही फाइनल करनी है तो क्यों नहीं आप कुमारका बहनजी को अपने प्रतिनिधि के रूप में मुंबई भेज दें। बाबा ने हमारी बात को मान लिया और टेलीग्राम किया कि कुमारका बच्ची को रिसीव करो। इस प्रकार प्रदर्शनी के पहले चित्र से ही दादी जी का पूर्ण सहयोग प्रदर्शनी की सेवा के लिए मिला और दादी जी ने ही प्रदर्शनी के सभी चित्रों की समझानी फाइनल की। जब पहली प्रदर्शनी का उ‌द्घाटन महाराष्ट्र के राज्यपाल मंगलदास पकवासा ने किया तब दादी जी और ऊषा ने उन्हें समझाया और उनसे ओपिनियन लिखवाया। गवर्नर ने लिखा, यह अद्भुत (Marvellous) प्रदर्शनी है। बाद में सभा में संबोधन के लिए भी गवर्नर गये। इस प्रकार से प्रदर्शनी सेवा में ओपिनियन लिखवाने की शुरूआत भी दादी जी ने की। बाद में मातेश्वरी जी का मुंबई आना हुआ और मातेश्वरी जी ने दादी जी तथा सभी महारथी भाई- बहनों को बुलाकर प्रदर्शनी की सेवा विहंग मार्ग की सेवा है, यह प्रस्तावित किया।

दादी जी का मेरे लौकिक परिवार से घरेलु सम्बन्ध

इतने में ही ब्रह्मा बाबा को ईस्टर्न जोन की सेवा के लिए अच्छे हैण्ड्स की जरूरत थी तो दादी निर्मलशान्ता ने कोलकाता जाने की ऑफर ब्रह्मा बाबा को की और ब्रह्मा बाबा ने फौरन उस बात को स्वीकार कर दादी निर्मलशान्ता को वहाँ भेजा और दादी प्रकाशमणि को गामदेवी सेन्टर (उस समय वाटरलू मेन्शन) का इंचार्ज बनाया। तब से दादी प्रकाशमणि जी के साथ हमारे लौकिक परिवार का संबंध जुटा और वह संबंध दादी के अव्यक्त होने तक इतना ही घनिष्ठ रहा। मेरी लौकिक माता को दादी जी “माताजी” कहकर बुलाते थे और मेरी माताजी भी उनके साथ अपनी बेटी का व्यवहार करते थे। उन दिनों दादी जी को माइग्रेन की बीमारी थी और कई बार दादी जी को माइग्रेन के कारण सिरदर्द का दौरा पड़ता था और उलटी होती थी। दादी जी को माइग्रेन के अटैक का पहले से ही आभास हो जाता था इसलिए दादी जी फौरन टैक्सी पकड़कर हमारे लौकिक घर आ जाती थी। हमारी लौकिक बड़ी बहन, माताजी और ऊषा, दादी जी की सेवा करते, दवाई आदि देते। इस प्रकार दादी जी हमारे लौकिक परिवार के घरेलू सदस्य बन गये थे।

गामदेवी के दारु-उल-मुलक भवन में सेवाकेन्द्र का स्थानान्तरण

वाटरलू मेन्शन में जब सेवाकेन्द्र था, तब वहाँ से उसको स्थानांतरित करने की बात चल रही थी। हम मकान ढूँढ़ रहे थे। दादी जी, मैं और ऊषा कार में गामदेवी सेन्टर के पास ही खड़े थे। मैंने दादी जी को पूछा, आपको कहाँ पर मकान लेना है, कहाँ पर मकान के लिए कोशिश करें? उस समय गामदेवी का दारु- उल-मुलक भवन नया बना ही था, उसके प्रति दादी जी ने इशारा किया कि ऐसे मकान में अगर सेन्टर खुल जाये तो बहुत अच्छी ईश्वरीय सेवायें हो सकती हैं। ड्रामा प्लैन अनुसार उसी भवन में एक फ्लैट हमने बुक कराया था तो हमने अपने लौकिक परिवार से चर्चा करके दूसरे ही दिन दादी जी को वह फ्लैट ईश्वरीय सेवा में देने का ऑफर किया। दादी जी को वह फ्लैट बहुत ही पसंद आया और कहा कि हम आबू चलते हैं, बाबा से स्वीकृति लेकर इस फ्लैट में सेवा शुरू करेंगे। दो दिन पश्चात् हम आबू गये, ब्रह्मा बाबा से स्वीकृति ले वापिस आये और वाटरलू मेन्शन से सेवाकेन्द्र का स्थानांतरण गामदेवी में हो गया और उसी स्थान पर रहकर ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने तक दादी जी ने सेवायें की। इस प्रकार सन् 1964 से 1968 तक अर्थात् पाँच वर्षों तक दादी जी से निरंतर पालना लेने और आगे बढ़ने का सौभाग्य हमें मिला।

बाबा ने कमल हस्तों से लिखा नियुक्ति-पत्र

मातेश्वरी जी 24 जून, 1965 को अव्यक्त हुए तो हम सब मधुबन आये और थोड़े दिन रहकर दादी जी के साथ वापस मुंबई गये। तब मैंने ब्रह्मा बाबा को पत्र लिखा कि बाबा अब मातेश्वरी के स्थान पर यज्ञ की मुख्य संचालिका कौन होगी, इसका निर्णय आपको करना होगा और यह निर्णय लिखित में हो तो अच्छा रहेगा। ब्रह्मा बाबा ने दिनांक 01.04.1966 की साकार मुरली के अंतिम पेज पर अपने हाथों से सिंधी अक्षरों में दादी प्रकाशमणि को मुख्य प्रशासिका तथा दीदी मनमोहिनी को अतिरिक्त मुख्य प्रशासिका के रूप में नियुक्त करने का नियुक्ति-पत्र लिखा। बाबा ने मुझे इसकी एक कॉपी भेजी और कहा कि बच्चे, आज मैंने यह नियुक्ति-पत्र लिखा है और मुरली के द्वारा सबको सूचना दे दी है। इस प्रकार 1 अप्रैल, 1966 से दादी जी की मुख्य प्रशासिका के रूप में नियुक्ति हुई और वह कार्यभार उन्होंने 25 अगस्त, 2007 तक बड़ी कुशलता से सभाला।

ट्रस्ट के प्रति दादी जी की वचनबद्धता 

       फिर नवंबर 1968 में मैंने ब्रह्मा बाबा को पत्र लिखा कि बाबा, आपने दादी जी को मुख्य प्रशासिका के रूप में नियुक्त तो कर दिया है परंतु वे तो मुंबई में हैं, उन्हें यज्ञ का कारोबार संभालने का अनुभव और आपका मार्गदर्शन कैसे मिलेगा? तब बाबा ने युक्ति से मुझे और कुमारका दादी को वर्ल्ड रिन्युअल स्पीच्युअल ट्रस्ट के निर्माण के संबंध में आबू बुलाया। दीदी मनमोहिनी तथा दादा आनन्द किशोर आबू में ही थे। ब्रह्मा बाबा ने ट्रस्ट के बारे में राय-सलाह करने के लिए हम चार लोगों (मैं, दादी, दीदी तथा दादा आनन्द किशोर) की कमेटी बनाई। चर्चा के अंतिम दिन प्रश्न निकला कि ट्रस्ट का मैनेजिंग ट्रस्टी कौन बने ? प्रकाशमणि दादी और दीदी मनमोहिनी ने आपस में राय करके रात्रि क्लास में ब्रह्मा बाबा से मुझे मैनेजिंग ट्रस्टी के रूप में नियुक्त करने की बात की। मैं मना कर रहा था क्योंकि मुझे उसका अनुभव नहीं था तो दादी जी ने कहा, रमेश जी, आप यह कारोबार संभालो, मैं आपकी पूरी मददगार बनूँगी। दादी जी ने अपना यह वचन अंत तक निभाया और मुझे हर बात में ट्रस्ट के कारोबार में सहयोग दिया। दूसरे दिन ब्रह्मा बाबा ने मुझे तो ट्रस्ट के निर्माण का कारोबार करने के लिए मुंबई भेज दिया और दादी जी को आबू में रखा। दिसंबर 1968 से 18 जनवरी तक ब्रह्मा बाबा ने दादी जी को मुख्य प्रशासिका के रूप में कारोबार करने का गहन प्रशिक्षण देना शुरू किया। बीच में मैं भी दो बार आबू आया था और ब्रह्मा बाबा से मिली हुई शिक्षाओं का थोड़ा-सा स्वाद मुझे भी दादी जी द्वारा मिला।

दादी जी का पहला फोन

16 जनवरी, 1969 को मैं आबू संग्रहालय का मकान खरीदने की बातचीत करने के लिए अहमदाबाद आया और 17 जनवरी, 69 को मकानमालिक के साथ 95% बातें निश्चित कर रात को मधुबन में ब्रह्मा बाबा को फोन पर सारा समाचार दिया और पूछा कि मकान मालिक तो एक हफ्ते में आबू आकर मकान का एग्रीमेंट साइन करेगा तब तक मैं कहाँ जाऊँ, मधुबन आऊँ या बड़ौदा में जो प्रदर्शनी चल रही है, वहाँ जाऊँ? ब्रह्मा बाबा ने मुझे बड़ौदा जाने की श्रीमत दी परंतु दादी जी ने ब्रह्मा बाबा के हाथ से फोन लेकर मुझे सूचना दी कि मैं मधुबन आ जाऊँ और बड़ौदा ना जाऊँ। मैंने 18 जनवरी को रात 11 बजे की ट्रेन से आबू पहुँचने का तय किया। बाद में ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने पर दादी जी ने पहला-पहला फोन मेरे लिए ही करवाया और उन्हें मालूम चला कि रमेश आबू आने के लिए निकल गया है।

दादी जी ने दी मुखाग्नि

19 जनवरी, 69 को मुझे आबू पर्वत पहुँचने पर, बस अड्डे से पांडव भवन जाने के रास्ते में ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने का समाचार मिला। जब मैं पांडव भवन पहुँचा तो दादी जी, संदेशी दादी और ईशू दादी मेरे इंतजार में ही बैठे थे। तीनों मिलकर मुझे बाबा के कमरे में ले गई और तीन मिनट हमने ब्रह्मा बाबा के पार्थिव शरीर के सामने खड़े होकर योग किया। बाद में मैंने दादी जी को कहा कि आपने ब्रह्मा बाबा के शरीर को सारी रात अच्छी रीति संभाला है, अब आगे का काम हम भाइयों का है, हमें करने की इजाजत दीजिए। दादी जी ने मुझे पूछा कि क्या आपको यह सब करने का अभ्यास है? मैंने “हाँ” कहा और दादी जी ने मुझे अंतिम संस्कार करने की जिम्मेवारी दी। बाकी सब बातों का निर्णय करना तो मेरे लिए सहज था परंतु मुखाग्नि कौन करे, यह प्रश्न सामने था क्योंकि सारा ही दैवी परिवार मौजूद था। ब्रह्मा बाबा का लौकिक परिवार भी मौजूद था इसलिए मैंने अव्यक्त बापदादा से संदेश पूछा कि मुखाग्नि कौन देगा तो बाबा ने यही संदेश दिया कि यह सारी मानव जाति के अलौकिक पिता का अग्निसंस्कार है और इस दैवी परिवार में तो सबसे बड़ा और मुरब्बी बच्चा दादी प्रकाशमणि ही है इसलिए दादी प्रकाशमणि ही ब्रह्मा बाबा के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि देगी।

हमने भी दिया वचन दादी जी को

   1 फरवरी 1969 को जब हमारे परिवार ने दादी जी से छुट्टी माँगी तब दादी जी की आँखों में पानी भर आया और उन्होंने हमारे परिवार को कहा कि क्या आप भी हमें यहाँ छोड़कर मुंबई जायेंगे? तब हम सबने दादी जी को वचन दिया कि हम सदैव हर समय, हर बात में दादी जी के पूर्ण मददगार रहेंगे। इस प्रकार दादी जी के साथ हमारे यज्ञ सेवा के पार्ट की शुरूआत भी दादी जी के मुखारविन्द द्वारा हुई। उसके बाद का इतिहास तो सबको मालूम ही है कि कैसे दादी जी ने गैलप करके अपनी सीट की जिम्मेवारी उठाई और अपने आप को मुख्य प्रशासिका के रूप में सबके दिलों में प्रस्थापित किया।

विदेश जाने की श्रीमत मिली

सन् 1977 में बड़ी दीदी मुंबई आये हुए थे, उस समय दादी प्रकाशमणि जी का विदेश यात्रा का कार्यक्रम बन रहा था। बड़ी दीदी ने मुझे कहा, रमेश, आप आबू चलो, दादी जी का विदेश यात्रा का कार्यक्रम बन रहा है, उसमें आपके मार्गदशर्न की जरूरत पड़ेगी।बड़ी दीदी के साथ मैं और ऊषा आबू आये। जब अव्यक्त बापदादा से दादी जी की विदेश यात्रा के बारे में संदेश लिया गया तो अव्यक्त बापदादा ने दादी जी के साथ मुझे भी विदेश जाने की श्रीमत दी। दादी जी के साथ चार मास से भी अधिक समय विदेश यात्रा पर जाने का सौभाग्य मिला। इस दौरान बहुत सी बातें दादी जी से सीखी और दादी जी से माँ-बेटे का स्नेह और मार्गदर्शन प्राप्त किया। इस प्रकार दादी जी ने हमारे दिल में अलौकिक माता का स्थान पक्का किया।

दादी जी से सेवा के लिए मार्गदर्शन मिला

   मुंबई से जब ईश्वरीय सेवा पर निकले तब दादी जी ने प्लेन में ही मुझसे पूछा, आप प्लेन में क्या करते हो। मैंने कहा, ऐसे ही बैठा रहता हूँ, बाबा को याद करता हूँ तो दादी ने कहा, क्यों नहीं आप पत्र लिखते और सबको यात्रा का समाचार भेजते। उस समय फैक्स या ई-मेल तो थे नहीं, टेलिफोन बहुत महंगे थे। हमने पत्र लिखना शुरू किया। कैरो से हमारे साथ अमेरिका की बहुत बड़ी कंपनी का डायरेक्टर साथ में था तो दादी जी ने हमें उनकी सेवा करने के लिए कहा। मैंने उन महानुभाव से पूछा, आप परमात्मा को मानते हो? उसने मना किया। मैं सोच में पड़ गया कि नास्तिक को अपना ज्ञान कैसे सुनाऊँ? मैं दादी जी के पास मार्गदर्शन के लिए गया और पूछा। दादी जी ने कहा, नैतिकता की बातें सबको पसंद आती हैं इसलिए साकार बाबा की मुरली से सिविल आई और क्रिमिनल आई की बातें करो। मैंने उस आत्मा को ये बातें बताई और फ्रैंकफर्ट पहुँचते-पहुँचते वह नास्तिक से आस्तिक बन गया।

दादी जी की दुरांदेशी बुद्धि

   अमेरिका में हम चार दिन ही थे तभी ईश्वरीय सेवार्थ अमेरिका में संस्था को रजिस्टर्ड कराने का सोचा गया तब मैंने दादी जी से पूछा, क्या हम अमेरिका में संस्था को रजिस्टर्ड करायें, तब दादी ने कहा, मैं भारत में बड़ी दीदी से फोन करके पूछती हूँ। मैंने दादी को कहा कि मुख्य संचालिका तो आप हैं, आप निर्णय करें। दादी ने कहा, नहीं रमेश, जो मधुबन में है, वही मुख्य संचालिका है क्योंकि मधुबन ही यज्ञ का मुख्यालय है तो मैं मुख्य संचालिका होते भी मुख्यालय की स्वीकृति के बिना यहाँ पर संस्था को रजिस्टर्ड कराने की स्वीकृति नहीं दे सकती। फोन पर बड़ी दीदी से स्वीकृति प्राप्त करने के बाद ही बड़ी दादी ने मुझे रजिस्ट्रेशन के लिए कागज़ बनाने को कहा। मैंने कागज बनाये और उसमें वहाँ के भाई-बहनों के नाम ट्रस्टी के रूप में लिखे तब मुझे दादी की दूरंदेशी बुद्धि का विशेष अनुभव हुआ। दादी जी ने कहा कि इसमें अपना भी नाम डायरेक्टर के रूप में लिखो। मैंने कारण पूछा तो दादी जी ने कहा, यह ट्रस्ट भले ही अमेरिका में रजिस्टर्ड है परंतु भारत के साथ इसके संबंध को कानूनी रूप देने के लिए भारत के प्रतिनिधि के रूप में ट्रस्टी मण्डल में आपका नाम होना जरूरी है। दादी जी के इस सुझाव के आधार पर मैंने अपना नाम वहाँ के ट्रस्टी मण्डल में लिखवाया। इस प्रकार विश्व सेवा प्रति भी दादी जी का दृष्टिकोण सराहनीय था। बाद में दादी जी ने मुझे जर्मनी, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, हांगकांग आदि सभी स्थानों पर ईश्वरीय सेवा को कानूनी रूप देने के निमित्त बनाया।

दादी जी ने दिए सुअवसर

  मैं तो इन्कम टैक्स का वकील था, कानून की बातों को नहीं जानता था पर बापदादा की श्रीमत के आधार से मुझे यज्ञ सेवार्थ मकान खरीदने और अन्य संस्थाओं का निर्माण करने का सुअवसर भी दादी जी ने ही दिया। बाद में विदेश से भारत आकर भारत के सभी मुख्य स्थानों पर भी दादी जी के साथ मेरा जाना हुआ। दादी जी ने हर जगह जाकर विदेश यात्रा के संस्मरण सुनाए।

देवता माना देने वाला

   यहाँ एक विशिष्ट अनुभव लिख रहा हूँ। जब हम दिल्ली पहुँचे तो वहाँ करीब 2,000 भाई-बहनें आये हुए थे। कार्यक्रम के अंत में टोली बाँटने का प्रसंग आया। दादी जी ने कहा, मैं बहनों को और आप भाइयों को टोली बाँटो। वहाँ करीब 1200 बहनें और 800 भाई थे। मैं तो 800 भाइयों को टोली बाँटते थक गया, हाथ दर्द करने लगा। मैंने दादी को कहा, मुझे टोली बाँटने का अभ्यास नहीं है, मेरा तो हाथ थक गया, आपका क्या हाल है? दादी ने कहा, मुझे तो कुछ नहीं हुआ, मेरा तो टोली बाँटने का अभ्यास है। देवता माना देने वाला। आपको भी देने का अभ्यास करना चाहिए।

दादी जी की कुशल वकालत

       दादी जी बहुत अच्छी वकील भी थे, इसका भी मुझे अनुभव है। एक बार मैं मधुबन में आया था तो एक भाई ने मुझे आकर कहा कि आप हमारी ग़लतियों के कारण दादी जी को क्यों डाँटते हो? मेरे लिए यह डाँटना शब्द वज्रघात जैसा था तो मैंने उस भाई को कहा कि मेरी शक्ल को देखो, क्या मेरी यह ताकत है कि मैं दादी जी को डाँदूँ, दादी जी तो कितनी महान हैं, मैं उन्हें कैसे डाँट सकता हूँ! भाई ने कहा, दादी ने खुद मुझसे कहा है कि रमेश बहुत डाँटता है इसलिए मैं आपकी बात स्वीकार नहीं कर सकता। मुझे लगा कि इसमें दादी की ही कोई युक्ति है। इसलिए मैंने उस भाई को कहा कि ठीक है, इस बारे में मैं दादी से बात करता हूँ। दादी से जब इस बारे में पूछा तो दादी ने कहा कि वह भाई मेरे पास आया था, उसे ईश्वरीय सेवा के लिए कुछ खर्च करना था, मुझे उसे मना करना था पर मैं कैसे मना करूँ इसलिए आपका नाम बोल दिया और कहा कि रमेश मुझे डाँटता है, आपकी बात अच्छी होते भी मैं छुट्टी नहीं दे सकती। मैंने कहा, यज्ञ में इतने भाई-बहनें हैं, मेरा नाम ही क्यों लिया? तब दादी ने वकालत करते हुए कहा कि आपने शास्त्र पढ़े हैं, शास्त्रों में दधिचि की कहानी आती है कि इंद्र ने दधिचि की हड्डियों से अपना वज्र बनाया। मैंने कहा कि हाँ, मुझे मालूम है। दादी ने कहा, हम तो ईश्वरीय सेवार्थ आपकी हड्डी को हाथ नहीं लगाते, आपके नाम से ही हमारा काम हो जाता है। आप तो शुक्रिया मानो कि आपकी हड्डी सही-सलामत हैं। इस प्रकार से दादी ने मुझे रमणीक सांत्वना दी और मैं कुछ बोल नहीं सका। मैं जोश में दादी के पास गया था और हँसते- हँसते दादी के पास से आया। इस प्रकार दादी में वकालत करने की जन्मजात कुशलता थी।

 इस प्रकार के कितने ही ईश्वरीय सेवा के अनुभव दादी जी के साथ के हैं जिनको अगर लिखें तो एक बड़ी किताब बन जाये। ईश्वरीय सेवा के कारोबार में सक्रिय भाग लेने का मुझे और मेरे परिवार को जो भी अवसर मिला, उसके लिए दादी जी का कुशल नेतृत्व और रूहानी पालना ही निमित्त है। 25 अगस्त, 2007 के दिन हम सब आबू में ही थे। हमें दादी कॉटेज से फोन आया और मैं और ऊषा दादी कॉटेज पहुँच गये और दादी जी को हम सबने अंतिम विदाई दी। अपने स्थूल नेत्रों से एक आत्मा को स्थूल शरीर छोड़ते देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। इस प्रकार से दादी जी ने अंतिम श्वास तक मुझे नये-नये अनुभव कराकर अनुभवीमूर्त बनाया। दादी जी का आभार मानने के लिए मेरे और मेरे परिवार के पास कोई शब्द नहीं हैं और इसलिए ही इस पुस्तिका के अंदर इस लेख द्वारा मैं अपनी श्रद्धांजली दादी जी को दे रहा हूँ।

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ब्रह्माकुमारी मोहिनी बहन दादी जी के बारे में सुनाती हैं –

डरना मत, यह परमात्मा पिता का अलौकिक इशारा है

यह मेरा परम सौभाग्य और पुण्य कर्मों का फल था जो प्यारे बाबा ने मुझे दिव्य दृष्टि का वरदान देकर अपने अव्यक्त स्वरूप का साक्षात्कार कराया और सूक्ष्म रूप में इशारा दिया कि बच्ची, मैं तुझे लेने के लिए आया हूँ। बार-बार यह साज भरी आवाज़ मेरे कानों में गूँजती थी परन्तु मुझे समझ में नहीं आता था कि यह कौन है, क्यों मुझे लेने आया है। ऐसे समय में, प्यारे बाबा की आज्ञानुसार जापान में होने वाले सम्मेलन में भाग लेने जाते समय, चन्द घंटों के लिए प्यारी दादी जी का लखनऊ आना हुआ और मैंने उनसे उस आवाज़ का रहस्य पूछ लिया। दादी जी ने कहा, डरना मत, यह परमात्मा पिता का अलौकिक इशारा है, वह आपको अपना बनाना चाहता है, आप बहुत भाग्यवान हो जो आपको इतनी छोटी आयु (12 वर्ष) में भगवान ने पसंद किया। दादी जी जापान चली गई परंतु मेरे दिल पर अमिट छाप छोड़ गईं। चंद घंटों की मुलाकात में उनके वात्सल्य, अपनत्व भरी आवाज, झील- सी गहरी आँखें जिनमें ममत्व का सागर लहरा रहा था – इन सबने मेरे दिल में सदा-सदा के लिए स्थान बना लिया। उनके ऐसे दिव्य व्यक्तित्व को मैं जीवन में कभी नहीं भूल सकी।

रूहानी नजर से निहाल किया

एक वर्ष बाद जब दादी जी जापान से लौटने वाली थी तो मैं मधुबन में ही थी। मैंने देखा कि प्यारे बाबा बहुत उमंग और प्यार से दादी जी के स्वागत की तैयारियाँ कर रहे थे। हर ब्रह्मा-वत्स के अंदर दादी जी के प्रति अथाह प्यार देखकर मैं बहुत खुश हो रही थी। उनके आगमन की घड़ियाँ नजदीक आती जा रही थी। बहुत ही हर्षितमुख, बेपरवाह बादशाह, सेवा की सफलता से संपन्न, प्यारे बाबा से मधुर मिलन मनाती हुई दादी ने हम सबको भी रूहानी नजर से निहाल किया। मुझे देखकर बोला, आप भी आई हो? मुझे बहुत खुशी हुई कि प्यारी दादी ने मुझे पहचान लिया। तब से उनसे मिलने और पालना लेने का सिलसिला जारी है।

हर प्रकार की सेवा करनी सिखाई

तीन वर्ष के बाद जब मैं पुनः में यज्ञ आई तो प्यारे बाबा ने मुझे दादी जी के साथ देहली की अलौकिक सेवार्थ भेजा। दादी जी ने मुझे अपने साथ रखकर छोटी- से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी सेवाकरनी सिखाई। उनके संग के रंग में मैं आलराउण्डर और हर सेवा में दक्ष बनती गई। मैंने देखा, दादी जी का मम्मा-बाबा के साथ निश्छल प्यार, अटूट भावना, सेवा में समर्पण, हाँ जी का पक्का पाठ, एक बाप दूसरा न कोई की दृढ़ धारणा से सदा एकव्रता स्थिति। सत्यता और दिव्यता की प्रतिमूर्ति दादी सदा बापदादा के दिलतख्त पर विराजमान रह, निश्चिन्त भाव से परोपकार में तत्पर रहती और अन्य आत्माओं को सेवा में साथी बनाकर, एकता के सूत्र में बाँधकर, व्यस्त भी रखती और आगे भी बढ़ाती ।

बाबा मदद करेंगे

 जब हम दिल्ली में सेवारत थे तो कई बार दादी जी आवश्यक कार्य से, मुझे सेन्टर पर छोड़कर, दूसरे स्थान पर चली जाती थी और वहीं से संदेश देती थी कि आज आप क्लास करा लेना। मैं कहती थी, दादी इतने बड़े-बड़े भाई, मैं कैसे क्लास कराऊँ? पर दादी जी कहती थीं, बाबा मदद करेंगे। इस प्रकार क्लास कराने का उमंग और बल प्रदान करते-करते उन्होंने हमारा संकोच निकाल दिया। कई बार भाई-बहनें प्रश्न पूछते थे तो मैं कहती थी, सारी बातें एक ही दिन में थोड़े ही जान लेनी होती हैं। फिर मैं दादी से पूछकर अगले दिन, उन प्रश्नों के उत्तर दे देती थी। इस प्रकार दादी ने ज्ञान-योग में प्रवीण बना दिया। दादी जी मुझे बहुत प्यार करती थी। बच्चों की तरह प्यार करती थीं। प्यार से मोहनलाल कहकर बुलाती थीं।

दीदी ने बनाया दादी की सेवा-साथी

प्यारे बाबा के अव्यक्त होने के बाद जब दादी जी पर संपूर्ण यज्ञ की ज़िम्मेवारी आई तो बड़ी दीदी ने मुझे दादी जी का सेवा-साथी बनाया। दादी जी ने सारा प्रशासन सिखाया और सदा साथ में ले जाती थी। तब से दादी जी के अंग-संग रहना, उनके अव्यक्त होने तक बना रहा। अंत में भी इन नयनों ने, सब तरफ से उपराम हुई दादी को बाबा की गोद में समाते देखा। दादी जी के साथ रहते, उनके अनगिनत गुणों, विशेषताओं की साक्षी रही हूँ।

दादी जी का मुरली-प्रेम

मम्मा कई बार मुरली पढ़ती थी। वही बात मैंने दादी प्रकाशमणि जी में भी देखी। वे सुबह क्लास में जाने से पहले मुरली को बहुत अच्छी तरह पढ़ती थी। फिर शाम को चाय पीने के बाद मुरली पढ़ती थी। रात्रि को, कितनी भी देर से वे कमरे में आएँ पर मुरली पढ़े बिना सोती नहीं थीं। बाबा की मुरली से इतना जिगरी प्रेम था। कभी-कभी हम उनको कहते थे, दादी, आप मन-मन में पढ़ रही हैं, हमें भी सुनाइए, हम भी सुनेंगे। तब दादी जी बहुत प्यार से पढ़कर सुनाती थी, चाहे रात्रि के ग्यारह, साढ़े ग्यारह क्यों न बज जाएँ। दादी जी, क्लास में मुरली सुनाते समय अपनी कोई बात नहीं कहती थी। जो बाबा ने कहा, जैसे भी कहा, चाहे धारणा, चाहे सेवा के बारे में जैसे का तैसा सुनाती थीं इसलिए मुरली हम सबके अंदर छप जाती थी। जब दादी हॉस्पिटल में थीं, हम कहते थे, दादी जी, समाचार सुनोगे तो कहती थीं, नहीं। पर जब हम कहते थे,मुरली सुनोगे तो कहती थीं, हाँ। जब तक हम सुनाते थे, जागृत होकर सावधानी पूर्वक सुनती रहती थीं। मुरली सुनते समय दादी जी नींद नहीं करती थीं।

मुरली के बिना रह नहीं सकती थी

अव्यक्त होने के सप्ताह भर पहले भी दादी जी – काफी ठीक थी। मुरली में जैसे गीत की लाइन आती – थी, रात के राही..। हम पूछते थे, दादी, आगे क्या है, तो कहती थीं, थक मत जाना। जब कोई सिंधी अक्षर मुरली में आता था तो हम कहते थे, दादी, इसका अर्थ क्या है, तो बड़े प्यार से अच्छी तरह समझाती थीं। जितनी मुरली सुनती थीं दादी, बड़े ध्यानपूर्वक सुनती थीं, जब थक गई होती थीं तो स्वयं कह देती थीं, बाकी शाम को सुनेंगे। मैंने देखा, अन्त तक दादी को मुरली से इतना प्यार, जो उसके बिना रह नहीं सकती थी। मुरली पढ़ने के लिए पूछते थे तो तुरंत कहती थी, चश्मा लाओ, दादी मुरली पढ़ेगी।

दादी की समदृष्टि और बाबा से अतुलनीय प्यार

भ्राता निर्वैर जी, सुबह-दोपहर-शाम को आकर दादी जी को मुरली सुनाते थे। कभी नहीं आते थे तो हम सुनाते थे। मानो मैं सुना रही हूँ, भाता निर्वैर जी भी आ गए, तो मैं पूछती थी, दादी, निर्वैर भाई सुनाये? तो दादी कहती थीं, नहीं, आप सुना रही हो ना, आप ही सुनाओ। इस प्रकार दादी की समदृष्टि और बाबा से प्यार अतुलनीय था। दादी के दोनों तरफ बाबा के चित्र लगे हुए थे। उनका सारा ध्यान बाबा में ही रहा। बाबा के सिवाय कहीं भी नहीं, न किसी चीज़ में, न व्यक्ति में, न वैभव में लगाव-झुकाव था। उनके अंदर त्याग और वैराग्य की पराकाष्ठा थी। दादी जी हमेशा कहती थीं, सिम्पल रह, सैम्पल बनो। दादी कभी भी न तड़क-भड़क स्वयं पसंद करती थी, न हम लोगों को करने देती थीं। कभी ऐसा कुछ देखती थीं तो तुरंत कहती थी, जाओ, बदल कर आओ। मर्यादा पुरुषोत्तम बाबा की बच्ची होने के नाते दादी, स्वयं मर्यादा में रहती थी और सबको यही सिखाती थीं। वे कहती थीं, न बहुत ऊपर, न बहुत नीचे, साधारण रहो।

सहज अनुकरणीय कर्म

कई बार हम कहते थे, दादी, इतने वर्ष हो गये हैं, आपका बाथरूम इतना पुराना हो गया है। दादी कहती थीं, जैसा है, वैसा ही ठीक है। दादी का हमेशा लक्ष्य रहा कि जैसा कर्म मैं करूँगी, मुझे देखकर दूसरे भी करेंगे। इसलिए दादी ने आज तक ऐसा कोई कर्म नहीं किया जो दूसरों के लिए ठीक न हो। दादी ने वो कर्त्तव्य किए जिनका सब सहज अनुकरण कर सकें। दादी ऐसी परम पवित्र आत्मा, जो दुनिया में आज तक कोई दिखाई नहीं दी। दादी के संकल्प तक में नकारात्मक भाव नहीं था। पर ऐसा भी नहीं था कि किसी की ग़लती देखकर दादी बताती नहीं थीं, इशारा देती थीं कि इस पर ध्यान दो। पर ध्यान खिंचवाकर चली जाती थीं और भूल जाती थीं। लौटकर आने पर बहुत प्यार से कहती थीं, चलो यह करें, वह करें, अंगुली पकड़कर उसे घर, रसोई घुमाने लगती थीं। अंदर से आता था कि अभी तो दादी इशारा देकरगईं, अभी ऐसे प्यार कर रही हैं। फिर हम दादी को पूछते थे, तो कहती थीं, ऐसा? मुझे तो याद ही नहीं है। पहले-पहले मैं सोचती थी, दादी तो कह देती है कि मुझे याद नहीं पर मेरे अंदर तो यादें चलती थीं। तो दो-तीन बार के अनुभव के बाद मैंने समझा कि दादी के दिल में कुछ रहता ही नहीं था। संकल्प-मात्र भी किसी के लिए कोई ऐसी भावना न हो, यह बहुत ऊँची बात है, बहुत कमाल की बात है।

कभी नहीं कहा, मेरे पास समय नहीं है

कभी दादी ने किसी को उलाहना नहीं दिया, हमेशा प्यार की भासना दी। कभी यह नहीं कहा कि मेरे पास समय नहीं है। जब क्लास करा रही होती थीं, भोजन बनाने के निमित्त भाई आता और पूछता था, दादी, कढ़ी बनाई है, आप चखकर देखेंगी? तो क्लास में भी चखकर, उसे संतुष्ट करके भेजती थी। कहती थीं, इसको बनाना है ना, मैं अभी नहीं देखूँगी तो भोजन में देर हो जायेगी। दादी को सदा होता था कि कोई मेरे लिए इंतजार न करे। बाबा के नियम, धारणाओं पर पक्की होकर चलती थी।

करती भी थी और कराती भी थी

सारा दिन दादी योगयुक्त अवस्था में रहकर कारोबार में व्यस्त रहती थीं। दादी आदेश देकर चली जाए, ऐसा कभी नहीं हुआ। हम कहते थे, दादी, आप जाओ, हम कर लेंगे पर दादी कहती थीं, आप सेवा कर रहे हो, मुझे नींद ही नहीं आती है। बाबा मुझे सोने नहीं देता है। कहता है, जाओ, बच्चे सेवा कर रहे हैं। बैठेंगी, उमंग-उत्साह दिलायेंगी, टोली खिलायेंगी पर ऐसे ही छोड़कर नहीं जायेंगी। जब ओमशान्ति भवन बन रहा था तो सामने जंगल था, छोटी-छोटी पहाड़ियाँ थीं। जब पत्थर तोड़े जाते थे तो रात में सभी भाई-बहनों को लेकर दादी स्वयं जाती थीं और पत्थर उठाती थीं। दादी स्वयं भी उठाती थीं। हम कहते थे, दादी, बैठ जाओ, पर वो बैठती नहीं थीं, दो-चार पत्थर जरूर उठाती थीं। सारी रात हमारे साथ बैठी रहती थीं।करती भी थीं और कराती भी थीं। ओमशान्ति भवन की एक-एक ईंट में दादी की भावनाएँ समाई हुई हैं।

दृष्टि करती थी निहालसम

दादी, अंत तक भी सेवा करती रहीं। दूर से भी उनकी दृष्टि निहाल कर देती थी। एक-एक अंग दादी का सेवा करता रहा। आज दादी साकार में हमारे बीच नहीं है पर दादी का जीवन एक ऐसा उदाहरण है जो हम कभी भी दादी को भूल नहीं सकते हैं। जो दादी ने सिखाया, उसे करके दिखाएँ, यही दादी के प्रति सच्चा स्नेह है। अंत में इतना ही कहूँगी – जो बात तुझमें थी  वो तेरी तस्वीर में नहीं।

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सर्व स्नेही मुन्नी बहन व्यक्त कर रही हैं 40 साल के दादी जी के सान्निध्य के पलों में से कुछ चुने हुए अनुभव – 

प्यार की मूरत

सन् 1967 में जब साकार बाबा से मिलन का पुनीत अवसर मुझे मिला तो उन्होंने वरदान दिया कि इस बच्ची को बाबा मधुबन में ही रखेगा और यह बाबा का भण्डारा (स्टॉक) संभालेगी। मई, 1969 में जब कन्याओं का प्रथम प्रशिक्षण कार्यक्रम चला तो उसमें मैं शामिल हुई और इस कार्यक्रम के बाद प्यारे बाबा के वरदान को साकार करते हुए, मीठी दादी जी ने मुझे यज्ञ का स्टॉक संभालने की जिम्मेवारी सौंप दी। दादी जी प्यार की मूरत थीं। मैंने जब उनको पहली बार देखा था तभी से दिल का स्नेह बड़ी गहराई तक उनसे जुट गया था। दादी जी मुझे “लवली बेबी” कहकर संबोधित करती थीं, उनका यह लाड़-प्यार भरा संबोधन मेरे दिल को छूता था। मैं उनके करीब आना चाहती थी। इसलिए रोज रात्रि को गुडनाइट करने जाती थी। वे मुझे बाँहों में समा कर मुरली पढ़ती रहती थी और फिर कहती थीं, लवली बेबी, गुडनाइट।

सेवा ही मेवा है

दादी जी का सान्निध्य पाने के लिए मैं उनसे कहा करती थी, दादी जी, मुझे सेवा बताइए। मुझे पहली-पहली सेवा उनके हिन्दी पत्र लिखने की मिली। वे स्वयं बोलती जाती थी और मैं वैसा-वैसा लिखती जाती थी। इस प्रकार मुझे उनके नजदीक रहने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ और मैं धीरे-धीरे उनकी व्यक्तिगत सेवा भी करने लगी। कहा जाता है, सेवा ही मेवा है। उनकी सेवा के बल ने मुझमें बहुत योग्यताएँ भर दीं। दादी जी ने मुझे अग्रलिखित मुख्य व श्रेष्ठ बातें सिखाई – आज्ञाकारी, वफादार, फ़रमाँबरदार, ईमानदार, फेथफुल, एक बाप दूसरा न कोई, सदा एक्यूरेट, एवररेडी और दिल की सच्चाई-सफाई। इन श्रेष्ठ धारणाओं को मैंने दिल की तिजोरी में संभाल कर रख लिया जिससे मुझमें विशेष सामर्थ्य आता गया।

रोम-रोम खिल उठता था

एक बार दादी जी ने मुझसे कहा, जाओ, म्यूज़ियम सजा कर आओ। मैंने मन में सोचा, मैं तो स्वयं भी ठीक से कपड़े नहीं पहन पाती हूँ, तो म्यूजियम में रखे मॉडल्स को कैसे श्रृंगारूंगी। मैंने दिल की यह शंका दादी के समक्ष प्रकट की तो उन्होंने कहा, तुम जाओ, दादी कहती है, तुम सज़ा सकती हो। दादी का ऐसा विश्वास पाकर मेरी बुद्धि विचार चलाने लगी। एक दर्जी भाई का सहयोग लेकर मैंने म्यूजियम सजाने की सेवा पूरी की और दादी जी को दिखाई। दादी जी ने मुझे बहुत प्यार दिया। इस प्रकार दादी जी आज्ञा भी देती थीं और कार्य करने की शक्ति भी प्रदान करती थीं। जैसे छोटे बच्चे को कहा जाता है, उसी प्रकार दादी जी कहती थीं, मुन्नी, अभी यह काम करके आओ। वे बहुत ही प्यार से कहती थीं और उनकी इसी प्यार की शक्ति ने यज्ञ-सेवा का छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा कार्य भी हमको करना सिखा दिया। उनके नयनों से प्यार बरसता था, जब वे प्यार से “मुनड़ी” कहकर बुलाती थीं तो मेरा रोम-रोम खिल उठता था।

ये नजरें दादी की नहीं, स्वयं भगवान की हैं

दादी जी के अंग-संग रहने के कारण कोई भी योग्यता पैदा करने में मुझे कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ी। जैसे पारस के संग रहकर लोहा भी पारस बन जाता है, ऐसे दादी जी के संग रहकर मैं भी योग्य बन गई। सुबह से सायं तक की व्यस्त दिनचर्या में सैकड़ों बार उनके सम्मुख जाना होता, उनकी प्यार भरी दृष्टि पड़ती और मेरे अंदर उमंग-उत्साह लहरें मारने लगता। उनके सामीप्य में थकान किसे कहते हैं, मैंने नहीं जाना। मुझे महसूस होता रहा कि ये नज़रें दादी जी की नहीं, स्वयं भगवान की हैं, जो मुझे निहाल कर रही है।उनके स्पर्श मात्र से दिव्य शक्ति का मुझमें संचार होता था। मेरा दिल सदा ही ये लाइनें गुनगुनाता था –

तुमको अपना नसीब समझा है,

सबसे ज्यादा करीब समझा है।

 तुमको पाकर स्वयं से दादी जी,

 सारे जग को गरीब समझा है।

ओमशान्ति भवन, ज्ञान सरोवर, शान्तिवन आदि सभी यज्ञ के बड़े-बड़े भवनों को सजाने-संवारने का पूरा प्रबंधन दादी जी ने मुझे सिखाया। दादी जी खरीदारी की चीजें खुद बैठकर लिखवाती थीं। दादी जी की हर आज्ञा को साकार करने में मैं दिल से जुट जाती थी, मुझे बहुत खुशी मिलती थी।

क्षमा की सागरा

दादी जी बहुत ही रहमदिल और ममता की मूरत थीं। कभी कोई बात चित्त पर नहीं रखती थीं। मैं छोटी थी, तब कोई ग़लती कर देती थी तो बहुत प्रेम से समझाती थीं। क्षमा की सागर थीं, हर ग़लती को भुला कर प्रेम से आगे बढ़ाती थीं। दादी जी स्वयं सदा संतुष्ट रहती थीं और उनके बोल थे, “सभी यज्ञ-वत्स सदा खुश और संतुष्ट रहने चाहिएँ।” किसी को कुछ भी चाहिए तो बाबा के भण्डारे से उसे अवश्य मिलना चाहिए, यह उनकी भावना होती थी।

निद्राजीत और अथक सेवाधारी

दादी जी को सारे ब्राह्मण परिवार से बेहद प्यार था। जो सामने आता था, उसका मुसकराकर स्वागत करती थी। कहती थीं, आओ, आओ। वे निद्राजीत और अथक सेवाधारी थीं। जब कभी हम कहते थे, दादी, अमुक व्यक्ति आपसे मिलने आया है तो बिस्तर से उठकर भी मिलने को तैयार रहती थीं। वे तपस्वीमूर्त थीं। रात्रि को दो बजे उठकर तपस्या करती थीं। अमृतवेले का योग नियमित करती थीं। उस समय उन्हें बाबा से बहुत प्रेरणाएँ (टचिंग) मिलती थीं जिन्हें वे सुनाती भी थीं।

नजरों में अतीन्द्रिय आनन्द

यज्ञ में हज़ारों ब्राह्मण भाई-बहनें तथा अनेक वी. आई.पीज आते थे। वे हरेक से मिलती थीं। चाहे 30 हज़ार भाई-बहनें भी आ जाते थे, फिर भी लाइन में सभी उनकी नज़रों का अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त करते थे। हर कार्य करने में उनका उमंग-उत्साह सदा बना रहता था। वे त्याग और सादगी की भी मूरत थीं। प्यारे बाबा के स्लोगन – जो खिलाओ, जो पहनाओ, जहाँ बिठाओ, इसकी पूर्ण धारणा उनके जीवन में देखी। वे मास्टर पालनहार थीं। एक हज़ार यज्ञ-वत्सों और दस हज़ार निमित्त शिक्षिकाओं सहित सभी को बाप समान पालना देती थीं।

मेरे दिल की धड़कन

मुरली से उनका जिगरी प्यार था। दिन में तीन बार स्वयं मुरली पढ़ती थीं ही, क्लास में सुनाती थीं वो अलग। जब तक स्वस्थ रहीं, हमेशा स्वयं ही क्लास में मुरली सुनाती थीं। जब तबीयत नरम-गरम रहती थी तब भी वे देह में रहते हुए भी, देह से न्यारी फ़रिश्ता स्थिति में रहती थीं। कितनी भी तकलीफ हो, पूछने पर यही कहती थीं, मैं बहुत ठीक हूँ। एक दिन तो कहा, मैं बहुत सुखी हूँ। वे इस दुनिया में थीं ही नहीं, वो संपूर्णता की देवी बन चुकी थीं। सेवा करते महसूस होता था कि वतनवासी फ़रिश्ते की सेवा कर रही हूँ। उनके अंतिम दिनों में भाई-बहनें कॉटेज की खिड़की के शीशे में से उनके दर्शन करते थे। तब भी कहती थीं, सभी लाइन में आएँ, टोली लेकर जाएँ। हर बच्चे से उनका जिगरी प्यार था। दादी जी का मुस्कराता हुआ चेहरा और प्यार भरे नयन कभी भूलते नहीं हैं। दादी जी मेरे दिल की धड़कन हैं जो सदा मेरे साथ हैं और सदा मेरे साथ रहेंगी। अंत में इतना जरूर कहूँगी-

वो दिल कहाँ से लाऊँ 

तेरी याद जो भुला दे।

                                  *******

ब्रह्माकुमार आत्म प्रकाश, संपादक, ज्ञानामृत राजयोगिनी दादी प्रकाशमणि के साथ के अनुभव इस प्रकार सुनाते हैं –

मास्टर ज्ञान सागर

प्यारी दादी जी, बाबा की अनन्य रत्न, मुरब्बी बच्चा तो थीं ही परन्तु पुरुषार्थ करते-करते, हमारे देखते-देखते वे बाप समान बन गईं। आप कहेंगे, कैसे? देखिए, प्यारे बाबा गुणों के सागर हैं। वे ज्ञान के सागर हैं। दादी जी में भी ज्ञान कूट-कूट कर भरा हुआ था। बाबा ने उनको चुना जापान में शान्ति का संदेश देने के लिए। उनमें वो योग्यता थी कि आत्माओं के प्रश्नों के उत्तर दे सके, उन्हें संतुष्ट कर सके। सारा जीवन वे ज्ञान-रत्न बाँटती रहीं। अंत में भी उनके प्रश्न-उत्तर हम सभी ने पढ़े हैं। कितने सारगर्भित उत्तर वे अस्वस्थ शारीरिक हालत में भी देती रही हैं। उनमें ज्ञान की पराकाष्ठा थी। वे मास्टर ज्ञान सागर थीं। प्यारे बाबा पवित्रता के सागर हैं तो दादी जी ने भी सारे जीवन में कभी झूठ तक नहीं बोला। यह किसकी निशानी है? असीमित पवित्रता की। झूठ भी नहीं बोला, अन्य बातें तो दूर की रही। यह बहुत बड़ी आश्चर्यकारी धारणा  है।

सबके लिए सुखदायिनी

पवित्रता के बल से त्वचा और चेहरा चमकता है। दादी जी का चेहरा अंत तक प्रकाश की किरणें विकीर्ण करता रहा। प्यारे बाबा शान्ति के सागर हैं, पचास वर्षों के सान्निध्य में हमने कभी दादी को अशान्त, उदास नहीं देखा। सदा मुस्कराते हुए देखा। बाबा प्रेम के सागर हैं तो दादी जी भी प्रेम की देवी थीं। भगवान  सुख के सागर हैं तो दादी जी, सदा सबके लिए सुखदायिनी थीं। कभी स्वप्नमात्र, संकल्पमात्र भी न दुख लिया, न दिया। भगवान आनन्द के सागर हैं तो दादी जी को भी हमने सदा अतीन्द्रिय आनन्द में मगन देखा। भगवान सर्व शक्तियों के सागर हैं तो दादी जी सर्व शक्तियों की अधिष्ठात्री देवी थीं। आध्यात्मिक शक्तियाँ उनके हर कर्म से झलकती थी। इन्हीं शक्तियों के बल से वे हर असंभव दिखने वाली बात को संभव बना लेती थी। इस प्रकार दादी जी गुणों की धारणा में बाप समान बन गईं।

तुम निश्चिन्त रहो

हमने मम्मा-बाबा की भी खूब पालना ली परन्तु कभी यह नहीं सोचा था कि साकार में इनसे अलग होना पड़ेगा। दादी जी निमित्त बनीं तो दादी जी से भी भरपूर पालना, प्यार, मार्गदर्शन मिलता रहा। दादी जी के संग बीते मधुर क्षण अब रह-रहकर याद आ रहे हैं। एक बार मैं दादी जी के साथ बैठा था। मैंने कहा, दादी, हम तो बाबा के बड़े भोले बच्चे हैं। बाबा के बड़े-बड़े महारथी बच्चे हैं, बड़े-बड़े भाषण करने वाले भी हैं, मैं तो नहीं कर सकता। दादी जी यह सुनकर आधा मिनट के लिए मौन-सी हो गई, फिर बोली, नहीं आत्म, नहीं। तुम बहुत समझू हो। इतना बड़ा कारोबार कैसे चलता है, समझ है तभी तो चला रहे हो ना! मैंने कहा, दादी, यह तो ऊपर वाला चला रहा है। दादी ने तुरन्त कहा, यही तो समझ है। यह समझना कि सब ऊपर वाला चला रहा है, वास्तविक समझ यही है। मैंने कहा, दादी जी, जब प्रेस प्रारंभ की थी तो कई लोग कहते थे, देखना, यह समस्या आयेगी, वह समस्या आयेगी और प्रेस के संबंध में कई बातें आती भी हैं परन्तु ऊपर वाला पता नहीं कैसे चाबी घुमाता है, सब कुछ स्वतः ही ठीक हो जाता है और छपाई का कार्य निर्विघ्न चलता रहता है। दादी ने कहा, तुम निश्चिन्त रहो। मैंने भी अपने को भाग्यशाली समझा कि इतनी महान दादी जी ने मेरे लिए ऐसा महावाक्य उच्चारण किया।

हिसाब चुक्ता होते हैं

एक बार किसी महारथी ने काफी तकलीफें अनुभव करने के बाद शरीर छोड़ा था। मैंने कहा, दादी, बाबा करे, हम ऐसी तकलीफ सहन करके न जायें, ऐसा पुरुषार्थ और सेवा करने के बाद भी तकलीफें आती हैं तो अच्छा नहीं लगता। दादी ने कहा, चुप। ये सब हिसाब-किताब यहाँ चुक्ता होते हैं। बाबा ने कहा है, पालिश होती है। जन्म-जन्म के हिसाब-किताब, लेन-देन अगर यहाँ चुक्ता हो जायेगा तो धर्मराज के सामने उसे सलाम भी करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, और ही धर्मराज उसको सलाम करेगा। मैंने कहा, दादी, हम तो बैठे-बैठे उड़ जाना चाहते हैं। दादी ने कहा, शरीर से न्यारे होने का पुरुषार्थ करो तो ऐसा भी हो सकता है अर्थात् यह भी संभव है।

बिन माँगे सब देने वाली

प्रेस में जो भी चीज़ें छपती थीं, उन्हें दिखाने मैं अक्सर दादी जी के पास जाता था। चित्र, पत्रिका, पुस्तकें छपती ही रहती थीं और इनके कारण बार- बार दादी जी के सम्मुख जाना होता ही था। जब पत्रिका (ज्ञानामृत) लेकर जाते थे तो चित्र, लेख आदि सब बहुत ध्यान से देखती थीं और हमेशा पूछती थी कि कितनी पत्रिकाएँ छपती हैं? उस समय संख्या एक लाख साठ हज़ार थी। जब मैं यह संख्या बताता था तो बहुत प्रसन्न होती थीं। फिर एक पत्रिका का खर्च और उस पर बचत का भी पूरा हिसाब पूछती थी। इस प्रकार, साहित्य के संबंध में उनकी अमूल्य मार्गदर्शना और प्रोत्साहन मिलता रहता था। कारोबार में उनकी दिलचस्पी देखकर हमारा उमंग द्विगुणित हो जाता था। बिन माँगे दादी जी, सभी सुविधाएँ प्रदान करती थीं। हमारे पास पहले बाइंडिंग के लिए अलग से स्थान नहीं था। एक ही जगह छपाई, बाइंडिंग आदि होती थी। दादी जी एक बार मशीन का उद्घाटन करने आईं। जब दादी ने देखा कि जगह कम है और कारोबार बहुत विस्तृत, तो स्वयं ही बाइंडिंग के लिए एक पूरा हॉल प्रदान कर दिया। हमारे बिना कहे, हर सुविधा प्रदान करने में दादी जी हमेशा पूरी मददगार बनकर रहती थीं। दादी जी के वरदानी बोल आज जीवन का आधार बनकर इसे निर्विघ्न आगे बढ़ा रहे हैं और आगे भी बढ़ाते रहेंगे। दादी जी की गुणमूर्त छवि अव्यक्त होते भी साकार की भाँति दिल में समाई हुई है और प्रेरित, उत्साहित कर रही है।

ओ.आर.सी., दिल्ली से ब्रह्माकुमारी आशा बहन दादी जी के साथ का अपना अनुभव इस प्रकार सुनाती हैं –

तुम किसकी “आशा” हो?

मैं स्वयं को पद्मापद्म भाग्यशाली समझती हूँ कि आदरणीया दादी जी की पालना, मार्ग प्रदर्शना एवं सान्निध्य मुझे बाल्यकाल से ही प्राप्त हुआ। दादी जी से प्रथम मुलाकात कानपुर में हुई जब दादी जी हमारे लौकिक घर आई थीं। उस समय मेरी आयु मात्र 9- 10 वर्ष की थी। दादी जी की दृष्टि बहुत अलौकिक, मधुर, रूहानियत से भरपूर और शक्तिशाली थी। दादी जी ने उस छोटी सी आयु में मेरे से एक प्रश्न पूछकर बाबा का बना दिया। दादी जी ने पूछा- तुम किसकी ‘आशा’ हो, निर्मला, पुरी (लौकिक माता-पिता का नाम) की या बाबा की? मेरे कानों में सदा ये शब्द गूँजते रहे, जिन्होंने मुझे बाबा का बना दिया। दादी जी में इतनी पारदर्शिता थी जो किसी भी आत्मा को अपनत्व की अनुभूति कराके अपना बना लेती थीं। उनमें आत्मीयता, मातृभाव और मैत्रीभाव भरपूर था।

वह दिन आज ही है

दादी जी में कुशल प्रशासन कला एवं नेतृत्व कला थी। वे किसी भी सेवा को असम्भव नहीं समझती थीं और न समझने देती थीं। कोलकाता में सन् 1974 में मेला हुआ था, तब दादी जी लगभग 15 दिन से अधिक वहाँ रही थीं। मेले में प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई गई। उसकी प्रेस रिलीज़ बनानी थी। उस समय वहाँ कोई बड़े भाई नहीं थे। दादी जी ने मुझे आज्ञा दी कि प्रेस विज्ञप्ति बनाओ। मैंने कहा- दादी जी मैंने कभी नहीं बनाई है, तो दादी जी ने कहा- ‘कोई तो दिन होगा जो तुम बनाओगी। ऐसा ही समझो कि वह दिन आज ही है।’ दादी जी ने अपना उदाहरण देकर कहा- यज्ञ में शुरू में मैं ही लिटरेचर लिखती थी, भाई नहीं थे। अतः हमें सब कार्य करना आना चाहिए, आलराउण्डर बनना चाहिए। दादी जी ने मुझे उत्साह दिया, गाइडेन्स दी और दूसरे दिन वह विज्ञप्ति अखबारों में छपी।

नवीनता पसन्द

दादी जी की नेतृत्व कला की एक खूबी थी कि वे सदा नवीनता पसंद करती थीं। जब भी दादी जी से मिलते थे तो कहती थीं- क्या नया समाचार है? आपने क्या नया प्लान बनाया है, कौन से वी.आई.पी. से मिली, उन्होंने क्या प्रश्न पूछा, फिर आपने क्या उत्तर दिया? आदि-आदि। ऐसा अनुभव होता था कि दादी जी मुख्य प्रशासिका के नाते सब प्रकार की जानकारी रखना पसंद भी करती थी और ऐसा करके हमारा उमंग-उत्साह भी बढ़ाया करती थीं।

शुभ भावनाओं भरा स्नेह

दादी जी स्नेह स्वरूपा थीं। वे अपने दिव्य स्नेह से सबका मन जीत लेती थीं। अपनी कर्मातीत अवस्था की समीपता के समय एक विशेष महत्वपूर्ण बात दादी जी ने बताई। निश्चित रूप से लव और लॉ का बैलेन्स रखना प्रशासन में आवश्यक है परन्तु उनका कहना था कि अलौकिक, निःस्वार्थ, रूहानी स्नेह प्रशासन की सर्वोच्च विधि है। दादी जी इसका प्रमाण थीं। इतना शुभ भावनाओं भरा स्नेह देती थीं जो व्यक्ति अपनी भूल स्वतः स्वीकार कर स्वयं को परिवर्तित कर लेता था।

दादी जी स्वयं आदर्श शिक्षिका थीं। उन्होंने सिखाया कि आदर्श शिक्षिका वही है जो अव्यभिचारी बुद्धि वाली, निर्मोही, पढ़ाई में प्रवीण एवं आलराउण्डर हो। यज्ञ से प्रीतबुद्धि, आज्ञाकारी, वफादार, फरमानबरदार, ईमानदार और मर्यादाओं का पालन करने वाली बहन आदर्श शिक्षिका हो सकती है।  

बात सन् 1969 की है। दादी जी के साथ मैं ईशु दादी के ऑफिस के सामने खड़ी थी। एक जीप आई, उसे गेटकीपर ने रोक लिया। वह जीप किसी ऑफिसर की थी। वे इस बात से बिगड़ गए कि जीप रोकी क्यों? दादी जी ने देखा, कुछ कहा-सुनी हो रही है, उस ओर चल पड़ी और ऑफिसर से हाथ जोड़कर कहने लगीं- आप ख्याल न करें, इसकी ओर से मैं आपसे माफी माँगती हूँ। ऑफिसर को जब मैंने बताया कि आप ईश्वरीय विश्व विद्यालय की मुख्य प्रशासिका हैं तो वे दादी जी के पाँव में पड़ गए। इस प्रकार दादी जी ने अपनी महानता का परिचय दिया। वे सच में निमित्त भाव, निर्मान भाव एवं निर्मल वाणी की प्रतिमूर्ति थीं।

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वाराणसी से ब्रह्माकुमारी सुरेंद्र बहन दादी जी के बारे में अपना अनुभव इस प्रकार सुना रही हैं कि परम आदरणीया दादी प्रकाशमणि जी के साथ के अनुभवों का प्रकाशपुंज सदा मेरे जीवन पथ को आलोकित करता रहता है। उनके साथ बिताये गये क्षण मेरे जीवन की सबसे कीमती धरोहर के रूप में मानस पटल पर अंकित हैं। उनकी स्मृतियों का सुखद झोंका मन को दिव्यता की अलौकिक खुशबू और ज्ञान-रत्नों से तरोताजा कर देता है।

नेत्र-मिलन से गहन अनुभव

जब दादी जी अस्वस्थ थे, उन दिनों जब कभी उनके सम्मुख जाती थी और अपना नाम बताकर मिलती थी, तो दादी जी आँखें खोल देती थीं। नेत्रों द्वारा यह अलौकिक मिलन मुझे गहन आध्यात्मिक अनुभवों की दुनिया में पहुँचा देता था।

शब्दों का आध्यात्मिक संयोजन

दादी जी चार बार ईश्वरीय सेवार्थ काशी की पवित्र भूमि में पधारी थीं। अंतिम बार वे सारनाथ में बनाए गए आध्यात्मिक संग्रहालय ‘जीवन मूल्य आध्यात्मिक कला मंदिर’ का उद्घाटन करने पधारी थीं। दादी जी ने उस समय बड़े स्नेह और प्यार से कहा था- ‘तुम्हारा नाम सुरेंद्र है और यह म्यूज़ियम भी बड़ा सुंदर है।’ इस प्रकार आदरणीया दादी जी को शब्दों को सहज ढंग से आध्यात्मिक रूप से संयोजित करने में महारत हासिल थी। प्रायः जब भी मैं दादी जी से मिलती, वे कहा करती थी कि जैसे बाबा ने कहा है- काशी से बाबा की प्रत्यक्षता होगी, वैसे ही यहाँ (म्यूज़ियम) से विशेष सेवा होगी। आज इसे हम प्रत्यक्ष रूप से देख और अनुभव कर रहे हैं। प्रशासन के क्षेत्र में उनका प्रसिद्ध वाक्य-‘स्वयं को हेड समझने से हेडेक होता है और निमित्त समझने से हेडेक (मानसिक कष्ट) दूर होता है’, आज प्रशासनिक और प्रबंधन के क्षेत्र में सफलता और कुशलता का महामंत्र बन गया है।

दादी जी वास्तव में यज्ञ माता मातेश्वरी जगदम्बा सरस्वती की वास्तविक उत्तराधिकारी थीं, जिन्होंने अंतिम श्वास तक बड़े ही प्यार और जिम्मेवारी के साथ सेवा करते हुए यज्ञ को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया।

बोझ हो जाता था छूमंतर

दादी जी ने प्रशासनिक क्षेत्र में आध्यात्मिक गुणों एवं शक्तियों का प्रयोग करके सम्पूर्ण विश्व को एक अनमोल उपहार दिया है। दादी जी ने अपने प्रशासनिक कौशल द्वारा ब्रह्माकुमारीज़ संस्था को एक वैश्विक संस्था बना दिया। वर्तमान समय में मानव-प्रबंधन सबसे बड़ी चुनौती है। दादी जी में प्रत्येक मनुष्यात्मा में छिपी हुई आंतरिक शक्तियों को पहचानने की अ‌द्भुत शक्ति थी। वे पत्थर को पारस में बदलने की दिव्य कला की साक्षात् अवतार थीं। दादी जी प्रत्येक मनुष्यात्मा में गहरा विश्वास करती थीं और हर कार्य व्यवहार को सहजता से सम्पन्न करती थीं। उन्होंने कभी प्रशासनिक शक्तियों का केंद्रीकरण नहीं किया। दादी जी के सान्निध्य में आने से जिम्मेवारियों का बोझ जैसे छू- मंतर हो जाता था। व्यस्तता के बीच सहज रहने की कला मैंने दादी जी से सीखी है।

कराया अपनेपन का अहसास

दादी जी के सम्पर्क में रहकर मैंने परिस्थितियों को बदलते हुए देखा है। उनकी उपस्थिति मात्र से आत्माओं में उमंग-उत्साह भर जाता था। हताश या निराश आत्माओं को भी उनके अंदर छिपी हुई विशेषताओं का बोध कराकर दादी जी उनमें नई ऊर्जा का संचार कर देती थीं। इतने बड़े संगठन के कुशल संचालन हेतु दादी जी ने हरेक के विचार और भावनाओं की कद्र करते हुए छोटे-बड़े सभी को अपनेपन का अहसास कराया। उनके सामने कोई भी बिना किसी संकोच और भय के अपनी भावनाओं, समस्याओं एवं पुरुषार्थ की गहराइयों की गुत्थी सुलझाने पहुँच जाता था। सचमुच, दादी प्रकाशमणि एक ऐसी पारसमणि थीं जिनके सम्पर्क में आने वाला हर कोई निश्छल प्रेम, आत्म-विश्वास एवं दिव्यता से निखर उठता था।

दादी की सूक्ष्म उपस्थिति देती प्रेरणा

दादी जी के सामने कोई भी जाता, दादी जी उसे निःस्वार्थ प्यार, अलौकिक खुशी और शक्ति से सम्पन्न कर देती थी। यज्ञ के बड़े-बड़े कार्यों और सेवाओं को विस्तार देने में दादी जी ने जो महत्वपूर्ण पार्ट बजाया है वह आज हम सभी के लिए अनुकरणीय बन गया है। दादी जी की दिव्य और सूक्ष्म उपस्थिति आज भी हमें प्रेरणा और नई शक्ति प्रदान करती रहती है। धन्य है हम सभी जिन्हें ऐसी दादी माँ का सान्निध्य मिला, प्यार और दुलार मिला। 

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मुजफ्फरपुर सेवाकेन्द्र की निमित्त संचालिका ब्रह्माकुमारी रानी बहन, दादी जी के बारे में लिखती – 

प्राण प्यारी, मनहरणी सम्माननीय मीठी-मीठी दादी जी की यादें कदम-कदम पर याद आती रहती हैं। दादी ने सभी के दिलों पर राज्य किया।

हर समय बाबा सम्मुख

सन् 1965 में, मुम्बई में एक वर्ष दादी के साथ रहने का मुझे मौका मिला जिसमें देखा कि दादी निरंतर बाबा को याद करती थी। एक दिन की बात है, दादी के सिर में दर्द हो रहा था, मैं बाम लगा रही थी, कमरे में और कोई नहीं था। अचानक दादी ने कहा, रानी, देखो, बाबा मेरे सामने खड़ा है। फिर कुछ समय के बाद दादी बोली, सारे दिन में कोई समय ऐसा नहीं होता जब बाबा मेरे सामने ना हो। मैंने पूछा, दादी, कौन-सा बाबा? दादी ने कहा, दोनों कंबाइंड हैं ना! दादी के ये अनुभव के बोल ऐसे मेरे अंदर समा गये कि मैं भी बाबा को हर समय सम्मुख अनुभव करने लगी, याद करने लगी।

दिलों को जानने वाली

एक बार की बात है, मुजफ्फरपुर में मकान बन रहा था। मैं अचानक ही मधुबन आ गई। सोचा था, बाबा के कमरे में बैठ बाबा को याद करके आऊँगी तो मकान सभी के सहयोग से सहज ही बन जायेगा। एक दिन नाश्ते के बाद मैं पाण्डव भवन में हिस्ट्री हॉल के बाहर बैठ गई। दादी पार्टियों से मिलती रही, जब भी बाहर आती थी, मुझे देखती थी। अचानक दादी ने मुझे बुलाया, अपने कमरे में ले गई और बोली, रानी, मैं जितनी बार बाहर आई, तुमको बैठे देखा। मैंने कहा, दादी, मैं अकेली आई हूँ, इसलिए यहाँ बैठी हूँ। दादी ने कहा, नहीं, नहीं, तुम्हारे पास मकान बन रहा है ना, तुम्हें चिन्ता हो गई है। मैंने कहा, नहीं दादी। दादी ने कहा, मैं समझ गई हूँ, अच्छा, बाबा का सहयोग तुम्हें मिलेगा, सब काम सहज पूरा होगा- ऐसे सिर पर हाथ फेरते दादी वरदानों से भरपूर करती गई और कहा, तुमने हिम्मत रखी है ना, तभी तो यह सेवास्थान बन रहा है। ऐसे दिलों को जानने वाली थी दिलाराम मीठी दादी।

शान्त रहो और आगे बढ़ो

एक बार मैंने दादी से पूछा कि सहनशक्ति कैसे आए? दादी ने कहा, जैसे एक राजा अपने ही चिन्तन में मगन रहता है, इधर-उधर नहीं देखता, ऐसे ही सदा अपने पुरुषार्थ में मगन रहो तो शक्ति बढ़ती जायेगी। इधर-उधर देखने से, परचिन्तन करने से सहनशक्ति कम हो जाती है। सदा राजा की तरह रहो। मानो, हम लाइन में खड़े हैं, अगर कोई लाइन तोड़कर पीछे से आगे चला जाये, तो आगे वाले उसे जाने से रोकेंगे, बोलेंगे। इसी प्रकार आप आगे बढ़ रहे हैं, कोई बोलते हैं, निंदा करते हैं तो सहन करो, शान्त रहो और आगे बढ़ते चलो। जब मकान बनकर पूरा हो गया तब दादी स्वयं प्रोग्राम बनाकर मुजफ्फरपुर में आई और उसे वरदानों से भरपूर कर वरदानी भवन बना दिया। महालक्ष्मी दादी के आगमन से सभी खज़ाने भरपूर हो गये। दादी की मीठी दृष्टि सदा अपने पर अनुभव होती रही है। दादी का हर बोल उमंग-उत्साह दिलाने वाला, हिम्मत की शक्ति भरने वाला तथा साथ का अनुभव कराने वाला रहा है।

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लुधियाना की निमित्त संचालिका राज बहन, राजयोगिनी दादी प्रकाशमणि के प्रति अपने उद्‌गार इस प्रकार व्यक्त करती हैं-

रिगार्ड देने का रिकार्ड

दादी मुझे हमेशा राजी कहकर पुकारती थी। मैंने दादी की सबसे बड़ी विशेषता यह देखी कि दादी सबको बहुत रिगार्ड देती थी। बृजइन्द्रा दादी आती तो दादी-दादी कहकर बाजू में बिठा लेती। निर्मलशान्ता दादी आती तो भी, सभी दादियों को इतना रिगार्ड देती थी जो देखते ही बनता था।

संगठन बनाने का गुण

दादी के पास कोई प्लैन-प्रेरणा होती थी तो बहनों से, मधुबन निवासियों से चर्चा करने के बाद ही क्लास में सबके सामने रखती थी। ऐसा लगता था, दादी ने उस प्लैन में सबकी शुभभावना शामिल कर ली है। संगठन बनाने का उनका ये गुण मन को बड़ा भाया।

रमणीकता

दादी रमणीक थी, बहलाती थी। दादी लुधियाना में आई। एक माता ऊन की टोपी बनाकर लाई। एक बहन चांदी की सीटी लाई। दादी ने टोपी सिर पर रखी और सीटी हाथ में लेकर बजाने लगी, इस प्रकार सबको खूब बहलाया।

हलका रहना और करना

एक बार मेरा ऑप्रेशन हुआ था। मैं मीटिंग में नहीं आ सकी थी। दादी ने एक बड़ी बहन के हाथ बहुत सौगातें और विशेष याद-प्यार भेजी। कोई भी बात होती थी, दिल से सुनकर पूरा हल देती थी। एक बार मैंने एक समस्या के बारे में दादी से विस्तार से बात की। फिर दादी ने दो दिन बाद मुझे कहा, मैंने सारी पूछताछ की है, तुम इस बात को भूल जाओ। जैसे ही उन्होंने कहा, मैं उनके स्नेह में सब कुछ भूल गई। इस प्रकार वे खुद भी हलकी रहती थी, हमें भी हलका रखती थी।

 जिस दिन दादी अव्यक्त हुई, उस दिन दादी के कमरे में योग का प्रोग्राम मिला। जैसे ही मैं कमरे में गई, एकदम अशरीरी हो गई। इतने हलकेपन का मैंने पहली बार अनुभव किया था। 

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कटक सेवाकेन्द्र की निमित्त संचालिका ब्रह्माकुमारी कमलेश बहन, दादी जी के साथ के अनुभव इस प्रकार व्यक्त करती हैं –

 सन् 1966 में मैंने प्यारी दादी की एक झलक देखी, उस झलक से ही मेरा दादी के प्रति झुकाव और आकर्षण बढ़ने लगा। मुझे अनुभव होने लगा मानो दादी ने मेरे मन को मोह लिया। मुझे लगने लगा कि ये सचमुच दिव्य मूर्ति हैं, देवी स्वरूपा हैं। सन् 1969 में मैं दादी जी के बहुत नज़दीक आ गई जब दादी जी मधुबन में ही रहने लगी थी। प्यारी दादी की ममता, सरलता, नम्रता, गंभीरता, बुद्धि की विशालता का मैंने बहुत गहराई से अनुभव किया। दादी जी प्यार की मूर्ति थी। एक बार हमने कहा, प्यारी दादी, जैसे हमने बाबा की गोद ली है वैसे हम आपकी गोद में जाना चाहते हैं। फौरन दादी जी ने मीठी मुस्कान के साथ कहा, आओ, आओ और गोदी में ले लिया तथा पीठ थपथपायी। हमारी सारी थकान दूर हो गई। हमें अनुभव हुआ जैसे हम बापदादा की गोद में हैं।

दिव्यगुणों की खान

दादी जी दिव्यगुणों की खान थी। एक बार मैं एक सेवाकेन्द्र से आई, वहाँ थोड़ा कुछ सहन नहीं हुआ था तो दादी ने बड़े प्रेम से कहा, मैं यहाँ साठ सेठों का सहन करती हूँ, क्या तुम दो-चार स्टूडेन्ट का सहन नहीं कर सकती हो? सहनशक्ति से ही हमारे अंदर और भी दिव्यगुण आ जायेंगे। ऐसी मीठी शिक्षा देकर दादी जी उमंग-उल्लास से भर देती थी।

सहनशीलता और सरलता दादी जी में कूट- कूट कर भरी थी। प्यारी दादी को रोना बिलकुल पसंद नहीं था। एक बार मैं बात करते-करते थोड़ा रो पड़ी तो तुरंत दादी ने एक बहन को कहा, इसे बाहर ले जाओ, जब रोना बंद करे तब मेरे पास आये, तब दादी मिलेगी। मुझे तुरंत हिम्मत दी और दस मिनट के बाद जब मैं दादी के पास एकदम हँसके आई तो दादी ने मुझे बहुत प्यार किया, गले लगाया और खुशी दी, कहा, रोता कौन है? जिसका पति नहीं। तुम्हारा पति तो सर्वशक्तिमान है और मुझे दादी जी से शक्ति प्राप्त होने जैसा अनुभव हुआ। फिर मुझे पंजाब सेवा में जाने के लिए राज़ी किया।

मन की बात जानने वाली

जब भी हमने कोई मन की बात प्रकट की, दादी उसे शीघ्र ही पूरा करती। बिना बताये ही दादी को मालूम पड़ जाता था कि हम क्या चाहते हैं। एक बार मेरे मन में आया कि दादी की सेवा करूँ तो दादी मेरे मन की बात जानकर अपनी सेवाधारी बहन को बोली कि आज कमलेश को यह सेवा दे दो। यह सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मन में सोचा कि दादी तो पूरी साकार बाबा हैं। बिना कहे मन की बात समझ लेना और हर खुशी दे देना दादी की विशेषता थी। दादी को देख हमारे अंदर अनेक गुण आने लगे। अनेक कमज़ोरियाँ दादी अपने स्नेह और शक्ति की दृष्टि से मिटा देतीं। दादी को देख कर हमेशा त्याग, तपस्या, वैराग्य वृत्ति जागृत होती। दादी सदा तपस्या और सेवा की तरफ ध्यान खिंचवाती थी।

पत्रों द्वारा प्रेरणा

दादी का जीवन ही शिक्षणीय था। सन् 1973 में मैं सेवार्थ कटक आई। दादी के अनेक पत्र हमारे पास आते। अनेक प्रेरणादायक, उमंग-उल्लास भरी शिक्षायें हम दादी के पत्रों से प्राप्त करते। हमारा जीवन आगे कैसे बढ़े, इस पर दादी हमेशा ध्यान खिंचवाती। छह- सात बार दादी जी का उड़ीसा आना हुआ। प्रत्येक बार कुछ न कुछ आगे बढ़ने की प्रेरणा दादी जी से प्राप्त होती रही। पहली बार दादी जी ने कहा, यहाँ बहनों के लिए एक बैंक एकाउन्ट होना चाहिए और  तुरंत दादी जी ने अपने पास से पाँच सौ रुपया देकर एकाउंट खुलवाया। इतनी प्यारी दादी सभी प्रकार से हमारा ध्यान रखती। मधुबन में कभी कोई प्रोग्राम होता तो दादी कैसेट भेजती। एक बार दादी जब कटक से वापस जा रही थी तो स्टेशन पर तीस-चालीस बहनों और तीस-चालीस कुमारों का संगठन देखा। जाते- जाते दादी ने कहा कि कमलेश, इनको नज़र न लग जाये, अविनाशी टीका लगा देना।

वरदानी बोल

दादी जी हमेशा एकता का पाठ पढ़ाती। वे सत्यता और पवित्रता की देवी थी। जो बात कह देती थी वो एकदम सत्य हो जाती थी। एक बार जब कटक में ज़मीन ली, फाउण्डेशन डाला गया, प्यारी दादी जी आई, बहुत धूमधाम से कार्यक्रम हुआ। मैंने कहा, दादी जी आपने फाउण्डेशन डाला है तो आपको ही इसका उद्घाटन करना होगा। दादी जी ने कहा, दादी एक बार आयेगी, या तो फाउण्डेशन पर या उद्घाटन पर। मैंने कहा, दादी, यहाँ तो आपको दोनों में आना होगा तो दादी ने कहा, अच्छा देखेंगे। फिर अमृतवेले मैंने दादी से कहा, दादी यह मकान कैसे बनेगा, इसका बजट सिर्फ कागज़ में है, हाथ में कुछ भी नहीं। प्यारी दादी ने मुझे ऐसा वरदान दिया, सिर पर हाथ रखकर कहा, तुम यहाँ बीस साल से सेवा कर रही हो, देखना यह चुटकियों में सबसे जल्दी बनेगा। दादी के मुख में गुलाब। वही हुआ। दादी जी जो कहती वो वरदान के रूप में हमारे सामने प्रैक्टिकल होता। दादी यहाँ से गई और जाते ही फाउण्डेशन के लिए पच्चीस हज़ार रुपये का ड्राफ्ट भेजा और कहा, धीरज से करते चलो तो कार्य शीघ्र ही सफल हो जायेगा। ऐसे दादी जी में अपार धीरज था और सचमुच ही दो वर्ष में मकान बनकर पूरा हो गया।

ममतामयी माँ

दो साल के बाद दादी कोलकाता म्यूज़ियम के उद्घाटन कार्यक्रम में आई। उसी समय नये भवन के उद्घाटन अर्थ दादी जी हमारे पास भी आई। जून 8, 1992 को प्यारी दादी के करकमलों द्वारा उद्घाटन हुआ। प्यारी दादी ने कहा, यह कमलेश ऐसी ममतामयी है जो मुझे दो बार खींच लिया, फाउण्डेशन में भी और उ‌द्घाटन में भी। राजस्थान में ऐसी जगहें हैं जहाँ मैं एक बार भी नहीं गई और यहाँ चार-पाँच बार आ चुकी हूँ। ऐसी थी हमारी माँ स्वरूपा प्यारी दादी। आज भी दादी जी के साथ का अनुभव और दादी की यादों से अपना जीवन चला रही हूँ।

सन् 1976 की बात है, उस समय मेरे पास नीलम बहन थी। दादी-दीदी हमेशा हमें नीलकमल की जोड़ी कहती थी। पत्र में भी नीलकमल कहकर संबोधित करती थी। दादी जी के सारे पत्र आज भी मेरे पास हैं। जहाँ भी रहें, बीच-बीच में पत्र पढ़ते हैं और हमेशा दादी जी को अपने पास अनुभव करते हैं। जब भी मधुबन में जाती तो प्रातः रोज़ दादी जी को गुडमार्निंग करने जाती, वह एक मिनट का मिलन, मीठे गुडमार्निंग के बोल, दादी से नैन मुलाकात हमारे जीवन में लाखों खुशियाँ भर देती जो सारा दिन खुशी में ही व्यतीत होता। हमें अनुभव होता, दादी का प्यार, दादी की छत्रछाया हमारे साथ है और सदा रहेगी। आज भी हम उसी अनुभव में रहते हैं। बाबा के साथ दादी जी का फोटो मेरे कमरे में है। मैं बाबा और दादी को याद करके कोई भी कार्य करती हूँ तो पूर्ण सफलता मिलती है। अनेक दिव्यगुणों का प्रकाश भी प्राप्त होता है। ऐसी प्रेरणा की स्त्रोत प्यारी दादी जी को हम कभी भूल नहीं सकते।

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ब्रह्माकुमारी उर्मिला बहन, संयुक्त संपादिका, ज्ञानामृत, दादी जी के साथ के अनुभव इस प्रकार व्यक्त करती हैं –

ब्रह्मा बाबा के बाद छोटी मम्मा के रूप में 40 वर्ष तक यज्ञ कारोबार, सर्व की दुआओं के साथ चलाने वाली आदरणीया दादी जी के जीवन के उत्कृष्ट गुणसागर में से कुछ बूंदें प्रस्तुत कर रही हूँ।

विशाल दिल और परखशक्ति

सन् 1978 में हमारे पास के शहर में एक बड़ा मेला लगा था। उस समय हमारी माताजी ही ज्ञान में चलती थी। वे उस मेले में सेवार्थ गई थी। मेले का उद्घाटन करने दादी प्रकाशमणि तथा बड़ी दीदी मनमोहिनी दोनों आई हुई थी। हमारी माताजी देखने में बड़ी साधारण, भोली, संकोची और बांधेली थी। लगन बहुत थी, बाबा की याद में खोई रहती थी। माता जी ने सोचा, सब लोग और-और सेवायें कर रहे हैं, बर्तनों वाली सेवा पर कोई नहीं है, मैं कर लेती हूँ। वे सुबह क्लास के बाद से सारा दिन, निसंकल्प, अथक हो यह सेवा कई दिन करती रही। दादी-दीदी के आने के बाद भी वे उसी प्रकार सेवा करती रही। जब दोपहर खाने का समय हुआ तो दादी जी और दीदी जी – दोनों भोजन पर आईं। सब लोग उनके आगे-पीछे सेवा में लग गए। दृष्टि और वरदान बड़ों से पाने की भावना तो हरेक के मन में रहती ही है। माताजी इन सब बातों से बेखबर अपनी सेवा में तत्पर थी। पर तभी क्या हुआ, दादी ने पहली गिट्टी तोड़ी और बोली, एक माता सुबह से बर्तन साफ कर रही है, वो नहीं दिख रही, उसे बुलाओ। मेले का चक्कर लगाते दादी-दीदी ने सब सेवाओं का अवलोकन कर लिया था। माताजी को भी देख लिया था। उनके बुलाने पर माताजी आए, सामने बैठे, दादी-दीदी ने बड़े प्यार से मुख में गिट्टी खिलाई, पास बिठाया, प्यार किया, महिमा की और माताजी की आँखों से तो ऐसी गंगा-यमुना बही कि उनके जन्मों के पाप धुल गए। वे घर लौटी तो उनके नेत्रों में, उनके मुखमण्डल पर उसी प्यार की चमक फैली थी। फिर तो वे सारा दिन दादी-दीदी की महिमा गाती और हमें भी उस महिमा के रस में भिगो लेती। मेरी आयु 13-14 वर्ष की थी। मन में धुंधली-सी तस्वीर बनी कि ऐसी कौन महान आत्मा (वो भी नारी) है जिसने मेरी भोली माँ के सच्चे दिल को पहचान कर उसमें सच्चा प्यार भर दिया,अवश्य ही वो दुनिया से न्यारी और कोई अति-अति अलौकिक आत्मा है। अदृश्य रूप में दादी के विशाल दिल, परखशक्ति, निःस्वार्थ प्यार की मेरे दिल पर यह पहली छाप थी।

प्रभु के प्रति अपनापन

इसके बाद साकार नेत्रों से, आदरणीया दादी जी को पहली बार सन् 1984 में देखा। मैं पहली बार बापदादा से मिलने माउंट आबू आई थी। दादी हिस्ट्री हॉल में थोड़ी-सी कन्याओं के साथ मिलन-मुलाकात कर रही थी। दादी के तनावमुक्त, निश्छल, हँसमुख, भोले चेहरे पर मेरी नज़रें गड़ी हुई थी। उन्होंने ठिठोली करते हुए हम कन्याओं को संबोधित किया, “कन्याओं, आज वो लरका (लड़का) आएगा, उसे अच्छे से देख लेना, पसंद कर लेना।” दादी का इशारा परमपिता परमात्मा की ओर था, जो गुलज़ार दादी के तन में अवतरित होने वाले थे। उनकी इस प्यारी ठिठोली ने दिल पर इस बात की अमिट छाप छोड़ी कि दादी भगवान के बारे में इस तरह बात कर रही है जैसे वो उनका अपना अति प्यारा, छोटा- सा लड़का हो। मन में आया, इतनी बड़ी सत्ता के साथ इतनी समीपता और अपनापन! इससे हमारे मन में भी भगवान के प्रति पहले से कई गुणा ज़्यादा जिगरी प्रेम उत्पन्न हो गया।

दादी और बाबा एक लगे

सन् 1987 में जब मेरा समर्पण समारोह हुआ और दादी जी ने मुझे गले लगाया तो मुझे लगा कि संसार का सबसे बड़ा सुख यदि है तो इन्हीं नेत्रों से मिलन मनाने में, इन्हीं हाथों को स्पर्श करने में और इसी गले में बाँहें डालने में है। मैंने उसी समय मन ही मन भगवान से कहा, बाबा, मेरा समर्पण तो हो गया, मैं सेन्टर पर भी रह रही हूँ पर मुझे इस महान आत्मा की पालना का, छत्रछाया का डायरेक्ट सुख अवश्य देना। उनके स्पर्श मात्र से मुझे लगा, मैं भगवान की ही गोद में हूँ, दादी और बाबा – दो नहीं, एक हैं। भगवान ने मेरी यह आश पूरी भी की। सन् 2000 से सन् 2007 तक मुझे दादी जी की डायरेक्ट पालना मिली।

अपनेपन की गहरी अनुभूति

सन् 2000 में शान्तिवन में सेवार्थ समर्पित होने के बाद भाता आत्म प्रकाश जी के साथ भी और अकेले भी दादी जी से कई-कई बार व्यक्तिगत रूप से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनसे मिलने का अवसर आते ही रूह प्रफुल्लित हो उठती थी। कोई औपचारिकता नहीं। ऐसे लगता था, अपनी दादी, अपना सारा संसार। अपनेपन की ऐसी गहरी फीलिंग में मन को कहीं भी समेटना या सकुचाना नहीं पड़ता था। जो कहना होता था, दिल खोलकर बताते थे। दादी एक- एक बात ध्यान से सुनती थी, खुश होती थी, वरदानी हाथ उठा लेती थी। कई बार आत्म भाई जब मेरी सेवाओं का वर्णन करते थे तो सिर पर हाथ घुमा देती थी, गोद में ले लेती थी, माथा भी चूम लेती थी। मन में जो यह भाव था कि साकार बाबा से नहीं मिले, वो कमी दादी ने पूरी की।

नम्रता की मूर्ति

दादी कितनी निरहंकारी थी! जगदीश भाई के जाने के बाद, दादी जी के नाम से पुस्तकों के प्रारंभ के “दो शब्द” मैं आत्मा ही लिखती रही हूँ। दादी जब उन्हें पढ़ती थी तो खुश होकर कहती थी, जब तुम लिखती हो तो दादी बन जाती हो क्या? यह भी दादी का वरदान ही था कि इस छोटी-सी आत्मा को इतनी महान सेवा के लायक समझा गया। दादी जी ने एक बार लिखने के नाम पर मुझे इनाम भी दिया। मिलते समय मैं नीचे बैठना चाहती थी पर दादी हमेशा अपने साथ सोफे पर बिठाती थी।

एकानामी

जब आबू में चार साल लगातार बरसात नहीं हुई थी और पानी की बहुत कमी थी, उन दिनों की बात है। मैं दादी से मिलने कॉटेज गई थी। तभी मुन्नी बहन ने दवाई के लिए दादी को पानी दिया था। दादी ने गिलास उठाया, बोली, मुन्नी, यह पानी ज्यादा है, दवाई के लिए इससे आधे से भी कम पानी दो। दादी ने पानी कम करवाया ताकि बचा हुआ थोड़ा पानी भी फेंकना ना पड़े।

दादी की इसी बचत के संस्कार ने, करनी कथनी की एकता ने, सभी समर्पित भाई-बहनों में भी पानी की बचत का संस्कार डाला और सूखे के वो दिन भी आराम से गुज़र गए। इससे मुझे बहुत प्रेरणा मिली, आज भी वह प्रेरणा मेरे काम आ रही है।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Bk kamlesh didi ji anubhav gatha

प्यारे बाबा ने कहा, “लौकिक दुनिया में बड़े आदमी से उनके समान पोजिशन (स्थिति) बनाकर मिलना होता है। इसी प्रकार, भगवान से मिलने के लिए भी उन जैसा पवित्र बनना होगा। जहाँ काम है वहाँ राम नहीं, जहाँ राम है वहाँ काम नहीं।” पवित्र जीवन से सम्बन्धित यह ज्ञान-बिन्दु मुझे बहुत मनभावन लगा।

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Mamma anubhavgatha

मम्मा की कितनी महिमा करें, वो तो है ही सरस्वती माँ। मम्मा में सतयुगी संस्कार इमर्ज रूप में देखे। बाबा की मुरली और मम्मा का सितार बजाता हुआ चित्र आप सबने भी देखा है। बाबा के गीत बड़े प्यार से गाती रही परंतु पुरुषार्थ में गुप्त रही इसलिए भक्तिमार्ग में भी सरस्वती (नदी) को गुप्त दिखाते हैं।

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Dadi situ ji anubhav gatha

हमारी पालना ब्रह्मा बाबा ने बचपन से ऐसी की जो मैं फलक से कह सकती हूँ कि ऐसी किसी राजकुमारी की भी पालना नहीं हुई होगी। एक बार बाबा ने हमको कहा, आप लोगों को अपने हाथ से नये जूते भी सिलाई करने हैं। हम बहनें तो छोटी आयु वाली थीं, हमारे हाथ कोमल थे। हमने कहा, बाबा, हम तो छोटे हैं और जूते का तला तो बड़ा सख्त होता है, उसमें सूआ लगाना पड़ता है

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Bk jagdish bhai anubhavgatha

प्रेम का दर्द होता है। प्रभु-प्रेम की यह आग बुझाये न बुझे। यह प्रेम की आग सताने वाली याद होती है। जिसको यह प्रेम की आग लग जाती है, फिर यह नहीं बुझती। प्रभु-प्रेम की आग सारी दुनियावी इच्छाओं को समाप्त कर देती है।

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Dadi gulzar ji anubhav

आमतौर पर बड़े को छोटे के ऊपर अधिकार रखने की भावना होती है लेकिन ब्रह्मा बाबा की विशेषता यह देखी कि उनमें यह भावना बिल्कुल नहीं थी कि मैं बाप हूँ और यह बच्चा है, मैं बड़ा हूँ और यह छोटा है। यदि हमारे में से किसी से नुकसान हो जाता था तो वो थोड़ा मन में डरता था पर पिताश्री प्यार से बुलाकर कहते थे, बच्ची, पता है नुकसान क्यों हुआ? ज़रूर आपकी बुद्धि उस समय यहाँ-वहाँ होगी। बच्ची, जिस समय जो काम करती हो उस समय बुद्धि उस काम की तरफ होनी चाहिए, दूसरी बातें नहीं सोचना।

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Bk brijmohan bhai ji anubhavgatha

भारत में प्रथा है कि पहली तनख्वाह लोग अपने गुरु को भेजते हैं। मैंने भी पहली तनख्वाह का ड्राफ्ट बनाकर रजिस्ट्री करवाकर बाबा को भेज दिया। बाबा ने वह ड्राफ्ट वापस भेज दिया और मुझे कहा, किसके कहने से भेजा? मैंने कहा, मुरली में श्रीमत मिलती है, आप ही कहते हो कि मेरे हाथ में है किसका भाग्य बनाऊँ, किसका ना बनाऊँ।

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Bk nirwair bhai ji anubhavgatha

मैंने मम्मा के साथ छह साल व बाबा के साथ दस साल व्यतीत किये। उस समय मैं भारतीय नौसेना में रेडियो इंजीनियर यानी इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर था। मेरे नौसेना के मित्रों ने मुझे आश्रम पर जाने के लिए राजी किया था। वहाँ बहनजी ने बहुत ही विवेकपूर्ण और प्रभावशाली तरीके से हमें समझाया। चार दिन बाद हमें योग करवाया। योग का अनुभव बहुत ही शक्तिशाली व सुखद था क्योंकि हम तुरंत फरिश्ता स्टेज में पहुँच गये थे।

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Dadi gange ji

आपका अलौकिक नाम आत्मइन्द्रा दादी था। यज्ञ स्थापना के समय जब आप ज्ञान में आई तो बहुत कड़े बंधनों का सामना किया। लौकिक वालों ने आपको तालों में बंद रखा लेकिन एक प्रभु प्रीत में सब बंधनों को काटकर आप यज्ञ में समर्पित हो गई।

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Dadi chandramani ji

आपको बाबा पंजाब की शेर कहते थे, आपकी भावनायें बहुत निश्छल थी। आप सदा गुणग्राही, निर्दोष वृत्ति वाली, सच्चे साफ दिल वाली निर्भय शेरनी थी। आपने पंजाब में सेवाओं की नींव डाली। आपकी पालना से अनेकानेक कुमारियाँ निकली जो पंजाब तथा भारत के अन्य कई प्रांतों में अपनी सेवायें दे रही हैं।

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Dadi brijindra ji

आप बाबा की लौकिक पुत्रवधू थी। आपका लौकिक नाम राधिका था। पहले-पहले जब बाबा को साक्षात्कार हुए, शिवबाबा की प्रवेशता हुई तो वह सब दृश्य आपने अपनी आँखों से देखा। आप बड़ी रमणीकता से आँखों देखे वे सब दृश्य सुनाती थी। बाबा के अंग-संग रहने का सौभाग्य दादी को ही प्राप्त था।

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Bk ramesh bhai ji anubhavgatha

हमने पिताश्री जी के जीवन में आलस्य या अन्य कोई भी विकार कभी नहीं देखे। उम्र में छोटा हो या बड़ा, सबके साथ वे ईश्वरीय प्रेम के आधार पर व्यवहार करते थे।इस विश्व विद्यालय के संचालन की बहुत भारी ज़िम्मेवारी उनके सिर पर थी फिर भी कभी भी वे किसी प्रकार के तनाव में नहीं आते थे और न ही किसी प्रकार की उत्तेजना उनकी वाणी या व्यवहार में दिखाई पड़ती थी।

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Bk aatmaprakash bhai ji anubhavgatha

मैं अपने को पद्मापद्म भाग्यशाली समझता हूँ कि विश्व की कोटों में कोऊ आत्माओं में मुझे भी सृष्टि के आदि पिता, साकार रचयिता, आदि देव, प्रजापिता ब्रह्मा के सानिध्य में रहने का परम श्रेष्ठ सुअवसर मिला।
सेवाओं में सब प्रकार से व्यस्त रहते हुए भी बाबा सदा अपने भविष्य स्वरूप के नशे में रहते थे। मैं कल क्या बनने वाला हूँ, यह जैसे बाबा के सामने हर क्षण प्रत्यक्ष रहता था।

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