HI

Mateshwari Jagdamba Saraswati

Mamma

समर्पण से संपूर्णता की कहानी

A young teenager who not only recognised God, but also chose to trust Him for everything. She surrendered every day, every moment to serve God.

Mamma was unmatched in wisdom, love, care and discipline. The movie shows glimpses of her journey to become an epitome of perfection in her being, doing, and living.

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Mamma - 146

An epitome of One Faith, One Power

Mamma’s personality was very powerful. Mamma made an everlasting impression on everyone she met. Her speech was very sweet, yet most powerful and her words would calm down one’s mind, that is, transmit power to the mind. She had a soft, sweet voice and was a distinguished singer. A special kind of divinity seemed to flow with her voice and her songs were balm to the heart. There was a magical force in her words, whoever listened to her words would instantly feel the spiritual connection with the Supreme Father Shiva.

She applied the Godly principles of economy and simplicity in managing the affairs of the institution. Her exemplary powers of judgment and discrimination coupled with her innate gentleness and benevolence induced enthusiasm and devotion towards her. She was a constant source of inspiration and guidance who set standards by her own practical life.

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मातेश्वरी के जीवन की कुछ एक झलकियां

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मम्मा निर्भय बहुत थीं। वह कभी किसी से डरती नहीं थीं, शक्ति स्वरूपा थीं, सदा योगनिष्ठ थीं। कर्मेन्द्रियाँ सदा उनके अधीन थीं। वे सबको मातृप्रेम की भासना देती थीं। आयु में छोटी थीं फिर भी उनसे बड़ी आयु वाले भी उनको मम्मा कहते थे। इतना ही नहीं उनकी लौकिक माँ भी, उनको मम्मा ही कहती थी।

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मम्मा जब मुरली चलाती थीं, तो सब ऐसे तन्मय होकर सुनते थे कि मूर्तिवत् हो जाते थे। मुरली डेढ़ घण्टा चलती थी तो भी एकाग्रता से बैठ सुनते थे। मम्मा की मुरली इतनी प्यारी होती थी कि बात मत पूछो। पूरे यज्ञ में देखा जाए तो मम्मा बहुत कम बात करती थीं

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भोजन क्या है, कैसा है मम्मा यह कभी नहीं देखती थीं। जो मिला उसी को प्यार से स्वीकार कर लेती थीं। कभी नहीं कहा कि आज नमक कम है, ज़्यादा है, आज सब्ज़ी अच्छी है, अच्छी नहीं है। खाने के समय मम्मा कभी इधर-उधर नहीं देखती थीं। ऐसे चुपचाप बैठी, खाया और चली गई। भोजन को प्रसाद के रूप में स्वीकार करती थीं।

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मम्मा के सामने बाबा कुछ भी बात कहे, कुछ भी सुनाये, मम्मा कभी क्यों, कैसे यह नहीं सोचती थीं। सदा ‘जी बाबा’, ‘हाँ जी बाबा’ कहती थीं। इतना रिगार्ड था उनका बाबा के प्रति! बाबा के हर बोल पर मम्मा का अटूट विश्वास था। एक बार किसी ने मम्मा से पूछा, मम्मा, पहले बाबा कहते थे कि जहाँ जीत वहाँ जन्म। आजकल बाबा उसके बारे में कुछ बोलते नहीं, आपका क्या विचार है? तब मम्मा बोली, मेरा विचार कहाँ से आ गया? जो बाबा ने कहा है वही हम सबका विचार है। मम्मा ने कभी अपनी बद्धि का अभिमान नहीं दिखाया।

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मम्मा ने कभी बाबा को साधारण समझा ही नहीं। बाबा की हर बात को पूर्णत: सम्मान दिया और सम्मान देकर उसका पूरा परिपालन किया। कई बच्चे, बाबा की बात को बहुत साधारण रूप में लेते थे, तो मम्मा सब बच्चों को बिठाकर समझाती थीं कि बाबा को साधारण समझने की कड़ी भूल कभी नहीं करना। बाबा का एक-एक बोल बहुत मूल्यवान है। ऐसे कहकर बच्चों को सभ्यता और अनुशासन सिखाती थीं। मम्मा का बोलने का तरीका बहुत सम्मान, प्यार और मिठास वाला होता था। बच्चों को मम्मा ने रीति-रिवाज़, सभ्यता संस्कृति सिखाकर लायक बनाया और माँ के रूप में हम बच्चों का गुणों से शृंगार कर बाप के सामने रखा।

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मम्मा ने कभी अपना शो (दिखावा) नहीं किया। वह कितनी सेवा करती थीं लेकिन कभी अपने मुँह से कहा ही नहीं कि मैंने इतनी सेवा की। मम्मा डेढ़ मास सेवा करके बेंगलूर से पूना आरी थीं। उन्होंने बहुत सेवा की थी परन्तु फिर भी नहीं सुनाया कि रह-रह सेवा करके आयी हूँ। मम्मा अपने बारे में, किये हुए कार्य के बारे में कभी दूसरों को नहीं बताती थीं। वे जितना त्यागी थीं, उतना ही वैरागी थीं और उतना ही तपस्वी थीं।

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बाबा के सामने मम्मा मुस्कुराकर एवं सिर झुकाकर केवल एक बात कहा करती थीं, ‘हाँ बाबा’ अथवा ‘जी बाबा’, अन्य कोई शब्द ही नहीं। बाबा मम्मा को ‘मम्मा’ भी कहते थे और ‘बच्ची’ भी कहते थे। यज्ञ में हमेशा यह रिवाज़ रहा कि बाबा की मुरली से 10 मिनट पहले, क्लास में मम्मा ज्ञान-सितार बजाती थीं, बाद में बाबा आकर ज्ञान-मुरली बजाते थे।

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मम्मा बहुत गुणवान थीं। वह गुप्त तपस्विनी थीं। देखने में साधारण लगती थीं लेकिन वह गुणों की खान थीं। किसी ने भी मम्मा का मूड ऑफ होते कभी नहीं देखा। बाबा के हर वचन का पालन शीघ्र और सम्पूर्ण रूप से किया करती थीं। मम्मा में पालना की शक्ति अद्भुत थी।

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मम्मा का जीवन नेचुरल था। उनका स्वभाव बहुत सरल था। मिठास थी उनके व्यवहार में। उनमें सदा यह भाव रहता था कि सबको आगे बढ़ाए। मम्मा हरेक की योग्यता और विशेषता अनुसार वही कार्य दिया करती थीं जो वह सहज कर सके ।

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मम्मा का शिव बाबा के साथ-साथ ड्रामा के ऊपर भी अटल निश्चय था। मम्मा ड्रामा के ऊपर दो-दो घंटे क्लास कराती थीं। मम्मा कहा करती थीं कि जितना बाबा पर निश्चय है उतना ही ड्रामा पर भी निश्चय होना चाहिए, तब ही आप ईश्वरीय जीवन में एकरस अवस्था में रह सकेंगे। मम्मा के सारे जीवन में देखा गया कि ड्रामा पर अटल और अचल होने के कारण वे हमेशा एकरस रहती थीं। पूरे रुद्धस्थल (यज्ञ के कारोबार) में बाबा ने मम्मा को ही आगे रखा। यज्ञ ही मम्मा के नाम पर था। स्थापना के हर कार्य में जितनी भी परीक्षायें आयीं मम्मा ने शिवशक्ति सेना का नेतृत्व किया। कितनी भी कठिन परिस्थितियाँ आईं, विघ्न आये लेकिन मम्मा ने हंसते-हंसते, अचल-अडोल होकर सामना किया और विजय प्राप्त की।

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एक बार मम्मा से पूछा, “आप से पहले भी आई हुई बहनें यज्ञ में बहुत थीं, फिर भी आप अपने पुरुषार्थ में सब से आगे बढ़ीं, आप में ऐसी कौन-सी एक बात थी जो आप सबसे आगे चली गयी?” मम्मा ने कहा,“ यह तो बहुत कठिन प्रश्न है क्योंकि कोई व्यक्ति एक ही बात से आगे नहीं बढ़ता। कई बातें होती हैं, उन सबके तालमेल से व्यक्ति जीवन में आगे बढ़ता है।” मैंने कहा, नहीं, मैं एक ही बात जानना चाहता हूँ जिससे ही आप पुरुषार्थ में आगे बढ़ीं। काफी समय सोचने के बाद मम्मा ने कहा, मैं समझती हूँ कि मेरे में जो दृढ़ता है ना कि एक बार कोई संकल्प किया तो उसको किसी भी हालत में पूर्ण करना ही है, इसी गुण से मैं आगे बढ़ रही हूँ।

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मातेश्वरीजी से सब सन्तुष्ट थे और मातेश्वरी जी भी सभी से सन्तुष्ट थीं। मातेश्वरीजी किसी के भाव-स्वभाव के प्रभाव में नहीं आती थीं। सबको प्रेम से जीतती थीं इसीलिए कोई उनको पराया नहीं समझता था। ईश्वरीय ज्ञान की नई बातों को न मानने वाले भी मातेश्वरीजी उनके व्यक्तित्व की महिमा करते थे। उन्हें सभी अपनी माँ समझते थे।

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उनकी धारणा बहुत उच्च कोटि की थी। मम्मा बोलती बहुत कम थीं। केवल क्लास में या किसी से व्यक्तिगत रूप में मिलते समय ही हम उनकी आवाज़ सुनते थे। परमात्मा की याद में लवलीन रहने की उनकी एक स्वाभाविक स्थिति होती थी। उनके आस-पास के प्रकम्पनों से जो अपनेपन का अनुभव होता था वह बहुत सुखद प्रतीत होता था। उनके हर शब्द में ज्ञान समाया रहता था। यूं कहे, उनके रोम -रोम में ज्ञान समाया हुआ था। उनको देखते ही परमात्मा की याद में हमारा मन मगन हो जाता था। याद करने की मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। परमात्मा पिता की याद सहज आती थी।

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मातेश्वरी जी हरेक को कहती थीं कि किसी को मम्मा से किसी बात पर व्यक्तिगत रूप से मिलना हो तो किसी भी समय, बिना पूछे आ सकता है, किसी भी तरह की औपचारिकता की अवक्षयकता नहीं है। इस प्रकार, माँ अपना सारा समय बच्चों की उन्नति और सेवा के लिए दिया करती थीं। वे जितनी बड़ी अथॉरिटी थीं उतना ही निर्मान भी थीं।

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मम्मा में संगठन करने की शक्ति बहुत श्रेष्ठ और ज़बर्दस्त थी, सबको साथ लेकर चलने की कुशल कला थी। उनमें व्यक्तिगत धारणायें थीं, उदाहरणार्थ बाबा ने कहा और मम्मा ने धारण किया इसमें नम्बर वन थीं। सहज रूप से माँ के जो संस्कार होते हैं वे उनके अन्दर पूर्णरूपेण थे। समर्पित होने का उनका वह तरीका, जिसको झाटकू कहते हैं, कई भाई-बहनों के लिए एक आदर्श बना, बहुतों के जीवनउद्धार का प्रेरणा-स्त्रोत बना। सबसे बड़ी बात है कि उनको सबने यज्ञमाता के रूप में स्वीकार कर लिया था। उनको देखते ही हरेक को स्वाभाविक रूप से माँ की भासना आती थी। उन्होंने हरेक की ज़रूरतों को बिना माँगे पूरा किया। किसी को कोई वस्तु माँगने का अवसर ही नहीं दिया। किसी धर्म, जाति, पंथ वाला हो हरेक ने यही बेहद का अनुभव किया कि यही मेरी माँ है, मेरी हितचिन्तक है।

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सत्य तो यह है कि मम्मा ने ब्रह्मा बाबा के तन में अवतरित परमात्मा शिव के अति गुह्य व गोपनीय राज़ को अनंत गहराई से परख कर, शीघ्र ही अपनी कुशाग्र एवं पवित्र बुद्धि का परिचय दे दिया था। यज्ञ के इतिहास से यह स्पष्ट है कि बापदादा की प्रेरणाओं व आज्ञाओं को यथार्थ रीति समझकर उन्हें यज्ञ में कार्यान्वित कराने का उत्तरदायित्व उन्होंने पूर्ण कुशलता से निभाया । वह अन्य यज्ञ वत्सों को बार-बार समझाती थीं कि यह आज्ञा किसकी है! स्वयं जानी-जाननहार ऑलमाइटी अथॉरिटी की है। अत: ड्रामा में यह कार्य पहले से ही पूरा हुआ पड़ा है, हमें केवल निमित्त होकर हाथ-पैर चलाने हैं।

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मम्मा की चाल को देखकर बाबा कहते थे कि देखो, धरती भी मम्मा को प्यार करती है। फरिश्तों की तरह मम्मा हमेशा हल्की रहती थीं। मम्मा कितनी भी सेवा करती थीं लेकिन कभी भी उनके चेहरे पर थकावट नहीं नज़र आती थी। सदा मुस्कुराती और हल्की नज़र आती थीं। बाबा सदा कहते थे कि मम्मा इतनी पक्की पिड्डी है कि एक शिव बाबा को ही दिलबर बनाया है, और किसको भी दिल की बात नहीं सुनाती। जब भी मम्मा किसी जगह से विदाई लेती थीं तो सबकी आँखें नम हो जाती थीं पर, मम्मा इतनी पक्की थीं कि कभी भी उनकी आँखों में आँसू नहीं आते थे। मम्मा कहती थीं, बहाओ आँसू, कोई बात नहीं, लेकिन प्रेम के आँसूं हों। अगर प्रेम के आँसूं हैं, तो मोती बन जायेंगे ।

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मम्मा सदा कहा करती थीं, सदा सबको सुख दिया करो। पाँच तत्वों को भी दु:ख नहीं देना। अगर कोई ज़ोर-ज़ोर से चप्पल से आवाज़ करते हुए चलता है तो मम्मा कहती थीं कि धीमे-धीमे चला करो, धरती को भी कष्ट नहीं देना। तत्वों को भी तुम सुख दो ताकि ये तत्व भी तुम्हें सुख दें। जिस प्रकार, एक माँ अपनी बच्ची को हर बात समझाती है कि कैसे बात करें, कैसे चलें, कैसे व्यवहार करें, वैसे मम्मा भी हर तरह की शिक्षा देकर हम बच्चों को योग्य बनाती थीं। जब भी मैं मम्मा को देखती थी तब मम्मा मुझे सजी-सजायी, ताजधारी शक्ति के रूप में दिखाई पड़ती थीं।

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बाबा, मम्मा को बेटी के रूप में देखते थे, तो माँ के रूप में भी देखते थे। बाबा ने उनको हमेशा यज्ञ माता का ही सम्मान दिया । कभी बाबा, मम्मा को कहते थे, “मम्मा आप तो यज्ञ माता हैं, जगत् माता हैं, बच्चों को याद-प्यार दो।” तो मम्मा बाबा के कहने अनुसार याद-प्यार देती थीं। बाबा भी मम्मा को बहुत इज़्ज़त देते थे और वैसे व्यवहार भी करते थे। इस प्रकार, बाबा, मम्मा को बेटी के रूप से आज्ञा भी करते थे और यज्ञ माता के रूप से अथाह सम्मान भी देते थे।

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मम्मा को देखते ही सामने वालों को दीदार व अनुभव होते थे, क्यों? मम्मा की गहन तपस्या और उनकी धारणा ही थी जो देखने वालों को दीदार हो जाते थे, बाबा का साक्षात्कार हो जाता था। मम्मा के सामने कैसा भी कठोर विरोधी व्यक्ति झुक जाता था। किसने झुकाया? मम्मा के आदर्श, धारणायुक्त, तपस्वी जीवन और बाबा के प्रति उनकी अगाध समर्पण भावना ने।

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. मम्मा रोज़ मुरली ज़रूर पढ़ती थीं अथवा टेप द्वारा सुनती थीं। भले ही रात के 11 बजे हों लेकिन कल की मुरली सुनकर ही मम्मा सोती थीं। जितनी अपने कर्त्तव्य पर पक्की रही उतनी ही ईश्वरीय पढ़ाई पर भी पक्की रही। हॉस्पिटल में भी मम्मा रोज़ मुरली सुनती थीं। हमने मम्मा को सदा अलर्ट और एक्यूरेट देखा है। हमने कभी भी मम्मा की आँखें थकी हुईं नहीं देखी हैं। सदा उनके नयन बाबा की याद में मगन देखे हैं। मम्मा में नम्रता इतनी थीं कि जब बाबा कहते थे मात-पिता का याद-प्यार और नमस्ते, तब मम्मा अपने को माता नहीं समझती थीं। ऊपर इशारा करके कहती थीं कि उस मात-पिता का याद और प्यार है। मम्मा केवल जिम्मेवारी निभाने में, पालना देने में अपने को माता समझती थीं। मम्मा ने माँ का पद स्वीकार नहीं किया परन्तु माँ का कर्त्तव्य स्वीकार कर उसको पूर्णरूपेण निभाया । बाबा के सामने वह एक छोटी, नन्हीसी बच्ची का रूप धारण कर लेती थीं और यज्ञ वत्स और भक्तों के सामने आदिदेवी जगदम्बा माँ का रूप धारण कर लेती थीं।

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मम्मा के व्यक्तिगत पुरुषार्थ के बारे में एक बात अति महत्त्वपूर्ण है कि मम्मा को एकान्तवास बहुत प्रिय लगता था। वह रोज़ 2 बजे उठकर बहुत प्यार से बाबा को एकान्त में याद करती थीं। मम्मा की याद इतनी प्यार भरी रहती थी कि उनकी आँखों से प्रेम के मोती निकलते थे। मम्मा चाँदनी रातों में बैठकर रात भर तपस्या करती थीं।

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मम्मा को देखते ही उनका शक्तिरूप, तेजस्वी रूप और मातृ- प्यार खींचता था। वो पवित्रता की मूर्त थीं। धीर, गंभीर तथा बाबा के हर कदम का अनुसरण करने वाली शेरनी शक्ति महसूस होती थीं। भक्तिमार्ग में हम दुर्गास्तुति पढ़ते थे तथा नवरात्रि में नौ दिन व्रत रखते थे। मम्मा हमेशा मुझे दुर्गा रूप में दिखाई देती थीं। वह हमेशा हमारे में शक्ति भरती थीं। मम्मा कन्याओ में शक्ति भरतीं और कहती थीं कि शिव बाबा का नाम बाला करने वाली शक्तियां, सेवाधारी बनो।

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मम्मा में हम ने यह देखा है कि सामने कोई भी आए, किसी भाव से भी आए, मम्मा की दृष्टि पड़ते ही वह चरणों में झुक जाता था। हम तपस्या में, 14 वर्ष मम्मा के अंग-संग रहे। रोज़ अमृतवेले दो बजे बिस्तर छोड़ती थीं और कुर्सी पर बैठ योग करती थीं। यह मम्मा की नियमित दिनचर्या थी। मम्मा हमें सब प्रकार की कर्मणा सेवा साथ में बैठकर सिखाती थीं। चाहे अनाज साफ करते थे, चाहे सब्ज़ी काटते थे, मम्मा सबसे पहले आकर बैठती थीं और कैसे साफ करें और काटें वो भी सिखाती थीं।

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मम्मा बहुत निर्भय थीं। मम्मा प्रैक्टिकल (प्रत्यक्ष) में शेरनी, शक्ति स्वरूपा थीं। साथ-साथ मम्मा क्या अनासक्त थीं, बात मत पूछो! कोई देह-अभिमान नहीं परन्तु स्वमान का नशा इतना था कि और किसी में न हो सके। अपने पर पूरा विश्वास, बाबा पर पूरा विश्वास और बाबा के कार्य में पूरा विश्वास। बाबा ने कहा और मम्मा ने करना शुरू किया। एक बाबा ही संकल्प, श्वांस सब में था। प्यार भी सबके साथ मम्मा का इतना था, इतना था कि बराबर मेरे दिल से ये शब्द निकलते हैं “मम्मा तू ममता की मूर्ति है, निर्मानता की निधि है।” उनमें ममता थी परन्तु कोई मोह नहीं। सबको इतना प्यार करते हुए भी मम्मा उतना ही निर्मोही थीं, ममतामरी भी और ममता से परे भी।

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यह कराची की बात है, मम्मा ऑफिस में बैठी थीं तो मैंने जाकर पूछा, “मम्मा हम क्या पुरुषार्थ करें?” तब मम्मा ने कहा, “सदैव समझो यह मेरी अन्तिम घड़ी है।” वो दिन और आज का दिन मम्मा का वो मंत्र मुझे भूला नहीं है कि हर घड़ी अन्तिम घड़ी है और मुझे बाबा की याद में रहना है।

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कई बार हम मम्मा से पूछते थे, “मम्मा आप क्या सोच रही हैं, कहाँ हैं?” तब मम्मा बोलती थीं, “मैं यहाँ नहीं चल रही हूँ, मैं वैकुण्ठ की धरती पर चल रही हूँ।” कभी-कभी हमें सुनाती थीं कि मुझे महारानी श्रीलक्ष्मी के रूप में ये - ये अनुभव हुआ, मैंने राजकुमारी श्रीराधा के रूप में ये - ये अनुभव हुआ। अपने भविष्य और बाबा के महावाक्यों पर मम्मा का निश्चय शत-प्रतिशत था। बाबा ने कहा, उन्होंने माना और वैसे चलकर दिखाया । मम्मा की हर बात शक्तिशाली होती थी योग में, ज्ञान में, धारणा में और सेवा में। मम्मा में न किसी के प्रति आकर्षण हुआ और न किसी से नफरत हुई। मम्मा ने सबको अपना बनाया और वह सबकी बनकर रहीं।

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मम्मा की विशेष धारणा थी अन्तर्मुखता। मम्मा सबके साथ होते हुए भी अपने आप में अकेली रहती थीं। आलमाइटी बाप के साथ वार्तालाप करती रहती थीं। मम्मा अमृतवेले 2 बजे उठकर अपने कमरे में कुर्सी पर बैठ एकान्त में बाबा को याद करती थीं। दिन में कर्म करते समय भी ज्ञान के मनन-चिन्तन में मगन रहती थीं। मम्मा ने कभी हंसी-मज़ाक करके अथवा व्यर्थ बातें करके अपना समय व्यर्थ नहीं गवाया । मम्मा किसी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित होने नहीं देती थीं। सदा उस माँ-बाप की ओर ही इशारा करती थीं। मम्मा में बहुत मधुरता थीं तो निर्भयता भी उतनी ही थी। मम्मा कहा करती थीं कि जीवन में जिस भगवान से डरना चाहिए वही हमारा बन गया, फिर डरना किससे? डरता वह है जो पाप कर्म करता है। हम तो श्रेष्ठ कर्म, सत्कर्म करने वाले हैं, इश्वर की मत पर चलने वाले हैं, तो हम डरें क्यों?

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खाने-पीने में भी मम्मा की कोई आसक्ति नहीं थी। उन्होंने कभी यज्ञ -प्रसाद की ग्लानि अथवा टीका-टिप्पणी नहीं की। जो मिले, जैसा मिले, जितना भी मिले उसको आदर से और अनासक्त भाव से स्वीकार किया ।

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ज्ञान की देवी, विद्या की देवी होते हुए भी, मम्मा का पढ़ाई से इतना प्यार था कि वह दिन में तीन - तीन बार मुरली पढ़ा करती थीं। मम्मा कहती थीं, देखो, मुरली को जितनी बार पढ़ेंगे उतनी बार हमें ज्ञान का नया-नया खज़ाना मिलेगा।

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मम्मा अर्जुन की तरह एकाग्र थीं। नम्बर वन में जाने का लक्ष्र रखा। मम्मा हम बच्चों को सदा कहा करती थीं कि सदा विचार ऊँचे रखो तो बाप समान बन जाएंगें। सदा बाप को देखो। आप स्वयं को देखो, किसी अन्य को नहीं देखो। बाबा व ड्रामा पर निश्चाय रखो तो कर्मातीत बन जाएंगें ।

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मम्मा की दृष्टि शक्तिशाली होती थी। एक दिन मम्मा चाँदनी रात में बैठकर योग कर रही थीं। मैं जाकर उनके सामने बैठी, तो मम्मा ने दृष्टि दी और मैं ध्यान में चली गई। ध्यान में देखा कि चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश है और उसके बीच में आलमाइटी बाबा दिखाई दे रहे हैं।

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योग कैसे करें, रह भी मम्मा ने हमें सिखाया। वे अपने साथ संदली पर बिठाकर हमें योग कराती थीं। हमारी अवस्था को चेक करती थीं। कर्मणा सेवा करते समय भी मम्मा अपनी ही स्थिति में रहती थीं। मैंने एक बार मम्मा से पूछा कि “मम्मा, आप अभी गेहूँ साफ कर रही हैं, अभी आपका क्या संकल्प चल रहा है?” मम्मा ने कहा, “हम गेहूँ साफ नहीं कर रहे हैं, हम साक्षीदृष्टा होकर कर्मेन्द्रियों से साफ करा रहे हैं। मैं नहीं कर रही हूँ, करा रही हूँ।”

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मम्मा को शुरू से ही अव्यक्त और फरिश्ता रूप था। हमारा पुरुषार्थ प्रोग्राम प्रमाण होता था परन्तु मम्मा का पुरुषार्थ नैचुरल था, सहज रीति का था। इसलिए उन्होंने सहज रूप से सम्पूर्णता को प्राप्त किया।

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मम्मा के अव्यक्त होने के बाद उनकी पूजा अर्थात् जगदम्बा की, दुर्गा की पूजा बहुत ज़्यादा बढ़ी है। अव्यक्त रूप में मम्मा दुर्गा का पार्ट बजा रही है, इसके कारण दुर्गा की पूजा और अर्चना बहुत-बहुत हो रही है। कलकत्ते में तो देखने वाला दृश्य होता है कि दुर्गा पूजा क्या होती है! हमें तो महसूस होता है कि जब मम्मा साकार में थीं तब ज्ञान-ज्ञानेश्वरी बन ज्ञान की गंगा बहायी और अव्यक्त होने के बाद दुर्गा का पूरा-पूरा पार्ट बजा कर भक्तों को गुण और शक्तियों का वरदान दे रही हैं।

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जैसे कोई चिड़िया घास अथवा अनाज के दाने को पहले टुकड़ा-टुकड़ा करती है और बाद में अपने बच्चों के मुँह में डालती है वैसे, मम्मा भी बाबा के गुह्य ज्ञान को पहले अपने में धारण कर, अनुभव कर उसको सहज बनाकर हम बच्चों को सुनाती थीं। मम्मा, ज्ञान को इतना सरल बनाकर सुनाती थीं कि ईश्वलरीय ज्ञान से अनजान व्यक्ति को भी ज्ञान सहज समझ में आता था, उसकी बुद्धि में बैठ जाता था और वह ख़ुश हो जाता था।

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मम्मा अमृतवेले दो बजे उठकर अकेले में योग करती थीं। वह साढे तीन बजे तैयार होकर बाहर आती थीं। चार बजे से पाँच बजे तक सामूहिक योग होता था, उसमें मम्मा अवश्य आती थीं। उसके बाद स्नान आदि नित्रकर्म पूरा करती थीं। नाश्ते के बाद 9 बजे प्रातः मुरली क्लास होता था, उसमें आती थीं। उसके बाद एक-एक दिन एक-एक बहन को संदली पर बिठाकर ज्ञान की कोई-न-कोई प्वाइंट पर समझाने के लिए कहती थीं। इस प्रकार मम्मा सबको भाषण करना, क्लास कराना सिखाती थीं। उसके बाद सेवा करते थे। दोपहर के भोजन के बाद विश्राम होता था। मम्मा 5 बजे ऑफिस में बैठती थीं और रज्ञवत्सों को टोली खिलाती थीं। जब हमें कभी-कभी मम्मा से टोली खाने का मन होता था तो हम वहाँ जाकर मम्मा से टोली लेते थे। बाद में मम्मा ऑफिस का कामकाज देखती थीं। रात्रि भोजन के बाद मम्मा कचहरी कराती थीं।

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मम्मा दिव्यगुणों की सम्पूर्ण साक्षात् देवी थीं। उनके संकल्प चट्टान की तरह अडिग, बोल मीठे तथा सारयुक्त और कर्म श्रेष्ठ तथा युक्तियुक्त थे। मम्मा इतनी योगयुक्त, गम्भीर और शान्त रहती थीं कि उनके आस-पास के वातावरण में सन्नाटा छाया रहता था जो सभी को प्रत्रक्ष महसूस होता था। ऐसा लगता था कि मानो वह कोई चलता-फिरता लाइट हाउस और माइट हाउस हो। मम्मा की चाल फरिश्तों जैसी थी। आश्रम-वासियों को पता भी नहीं चलता था कि कब मम्मा उनके पास से गुज़र गयीं अथवा कब से वह उनके पीछे खड़ी हुई उनकी एक्टिविटी का निरीक्षण कर रही थीं। मम्मा के बोल बहुत ही मधुर, स्नेहयुक्त और सम्मान-पूर्ण होते थे।

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मम्मा ने शुरू से अन्त तक अपनी साधना में किसी भी प्रकार की ढील नहीं होने दी। रोज़ दो-ढाई बजे उठकर विशेष शान्ति में रहने का, बाबा को शक्तिशाली रूप में याद करने का अभ्यास करती थीं। उनकी डायरी में ज्ञान के एक-एक विषय पर बहुत गहराई की बात लिखी हुई थी। उनकी डायरी पढ़ने का सुअवसर मुझे जयपुर में मिला था। एक बहन जो एक साल मम्मा के साथ थी उसने मम्मा की डायरी से उन ज्ञान-बिन्दुओं को अपनी डायरी में लिखा था, वह डायरी हमें पढ़ने के लिए मिली थी। उन ज्ञान-बिन्दुओं को पढ़कर मुझे लगा कि मम्मा ने ज्ञान का कितना विचार सागर मंथन किया होगा, कितना ज्ञान की गहराई में गयी होगी और कितना उनको धारणा करने का अभ्यास किया होगा!

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मम्मा को योग लगाना नहीं पड़ता था किन्तु वह निरन्तर, सहज व स्वत: योगिन थीं। मन्मनाभव, मध्याजीभव के महामंत्र को वह स्वाभाविक रूप में धारण किये हुए थीं। अत: इस धरा पर चलते-फिरते भी इससे न्यारी भासती थीं। ऐसा लगता था जैसेकि उनकी बुद्धि सदा परमधाम में लटकी हुई हो तथा अतीन्द्रिय सुख का अनुभव कर रही हो। वह जब योगनिष्ठ होती थीं तो वातावरण में सन्नाटा छा जाता था। अन्र व्यक्तियों को शान्ति एवं शक्ति के शक्तिशाली प्रकम्पन अनुभव होते थे। उनमें योगियों के समस्त लक्षण विद्यमान थे जिस कारण उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था।

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मातेश्वीरी जी का ध्यान निजी पुरुषार्थ पर बहुत रहता था। सदा उनके मुख से यही शब्द निकलते थे कि “जैसा कर्म हम करेंगे, हमें देख दूसरे भी करेंगे।” ऊँचे स्वर से बोलते हुए उनको मैंने कभी नहीं देखा, आवाज़ से हँसना तो दूर की बात थी।

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मम्मा के देखने का ढंग ही विचित्र था। जैसे बाबा हमें देखते हैं और उनको देखते ही हम सब कुछ भूल कर एक अतीन्द्रिय अनुभव में चले जाते हैं, उसी प्रकार, मम्मा की दृष्टि, मम्मा का चेहरा इतना रूहानी होता था कि सामने वाला अपने को इस दुनिया से निराला अनुभव करता था। मम्मा हों अथवा बाबा हों, दोनों में कोई भी हमें योग कराते थे तो हम यहाँ नहीं रहते थे, कहीं दूर चले जाते थे, अनुभवों में खो जाते थे। उस समय हमें प्रैक्टिकल अनुभव होता था कि हम परमधाम में हैं। चारपाँच घंटे तक भी हम सब और मम्मा-बाबा एक ही मुद्रा में बैठे योगस्थ रहते थे। शरीर बिल्कुल टस से मस नहीं होता था।

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मम्मा में एक यह भी विशेषता थी कि वे कभी किसी को समय देकर नहीं मिलती थीं। जो बच्चे जब भी चाहें, किसी भी हालत में चाहें उनसे मिल सकते थे। मम्मा का वो व्यवहार अथवा पार्ट कहें असाधारण था। हमने देखा कि अन्य सब बहुत हंसते थे, बहलते थे, रमणीकता में आते थे लेकिन मम्मा कभी नहीं। मम्मा भी हंसती थीं परन्तु किसी को पता ही नहीं पड़ता था। शब्द रहित हंसी होती थी। वह मधुर मुस्कान होती थी। ज्ञान-ध्यान-योग के सिवाय और किसी में आसक्ति नहीं होती थी। अन्य लोग बाबा के साथ खेलना, रास करना आदि करते थे लेकिन मम्मा नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि मम्मा हर बात से किनारा करके अलग रहती थीं, नहीं। मम्मा सब कार्यक्रम जैसे पिकनिक, घूमना - फिरना, खेल-पाल आदि में जाती थीं परन्तु अपने पुरुषार्थ में मगन रहती थीं। ये सब क्रिया-कलाप साक्षी होकर देखती थीं। इस प्रकार मम्मा का स्व-पुरुषार्थ बहुत तीव्र था। मम्मा ने कभी अपना पुरुषार्थ ढीला नहीं छोड़ा।

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जब मम्मा योग में बैठती थीं अथवा दूसरों को दृष्टि देती थीं उस समय हरेक को विचित्र अनुभव होते थे। मम्मा के स्थूल स्वरूप के बजाय लाइट का स्वरूप ही नज़र आता था। जब मम्मा सामने बैठती थीं तो, जैसे हम कहते हैं कि अव्यक्त वातावरण बनाओ, विदेही अवस्था में रहो, डेड साइलेन्स में रहो, वह सब सहज ही हो जाता था। भले ही, सब ब्रह्मा-वत्स जानते थे कि मम्मा कुमारी हैं लेकिन उनको जो भी देखता था माँ का, देवी का, फरिश्ते का दर्शन होता था। देहभान होता ही नहीं था, जैसे छोटा बच्चा अपनी माँ की गोद में सहज रूप से चला जाता है वैसे हर ब्रह्मा-वत्स मातेश्वरीजी की गोद में चला जाता था।

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मम्मा का स्व-पुरुषार्थ बहुत था। मैंने मम्मा में हमेशा यह देखा कि वे ज़्यादा लौकिकता अर्थात् बाह्यमुखता में नहीं गयी। इधर-उधर की बातें अर्थात् ज्ञान, योग, धारणा, पुरुषार्थ के अलावा और कोई बात हमने कभी मम्मा के मुख से सुनी ही नहीं। पहले यह सिस्टम (पद्धति) थी कि जो भी बात करेगा वह उस दिन की मुरली की प्वाइंट्स से शुरू करेगा और अन्त भी मुरली की प्वाइंट्स से ही करेगा। बाबा या मम्मा किसी को भी पत्र लिखते थे तो भी उस पत्र के आरम्भ और अन्त में उस दिन की ज्ञान-मुरली की प्वाइंट्स अथवा धारणा की प्वाइंट्स अथवा योग की प्वाइंट्स लिखते थे।

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जब भी मैं मम्मा को देखती थी तो उनके चारों ओर सफेद लाइट ही लाइट दिखायी पड़ती थीं। ऐसे लगता था कि मम्मा शरीर में नहीं है, ऊपर सफेद प्रकाश में रहती है। फरिश्ता नज़र आती थीं। मम्मा दिन-रात बाबा को याद करती थीं। हम कभी रात को उठकर दरवाज़े के सुराख से देखते थे तो मम्मा कुर्सी पर बैठी नज़र आती थीं। कभी बालकनी मैं बैठ योग करती थीं, कभी चाँदनी में बैठ योग करती थीं। मैं समझती हूँ कि योग से ही मम्मा इतनी महान् बनी। मम्मा ने कभी अपनी तरफ इशारा नहीं किया। मम्मा हमेशा कहती थीं मेरी मम्मा को याद करो, मेरी उस माँ को याद करो।

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मम्मा ख़ुद धारणामूर्त होने के कारण धारणा की क्लास ही ज़्यादा कराती थीं। वो क्लास सबको बहुत आकर्षित करती थी। मम्मा ने अमृतवेला कभी मिस नहीं किया। एक बार मुंबई में एक मंत्रीजी मम्मा से मिलने आये। मंत्री जी के जाते-जाते रात के बारह बज गये। दूसरे दिन मम्मा अपनी दिनचर्या के अनुसार सुबह दो बजे ही उठी। उनसे पूछा गया मम्मा, आप तो करीब एक बजे सोयी होंगी फिर आप अपने समय पर इतनी जल्दी उठ गयी? तब मम्मा ने कहा, देखो उस मिनिस्टर की अपॉइंटमेंट के कारण मैं रात को जाग सकती हूँ तो सवेरे अमृतवेले मेरी अपॉइंटमेंट हमारे पिया के साथ होती है, यह हम कैसे मिस कर सकते हैं? मम्मा ने कभी अमृतवेला मिस नहीं किया।

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शिव बाबा हमेशा कहते थे कि बाबा नम्बर वन है परन्तु तुम्हारी माँ तो प्लस वन में गयी। मम्मा के चेहरे पर हमने कभी भी उदासी नहीं देखी, उनका सदैव मुस्कराता हुआ चेहरा था। मम्मा का एक-एक बोल सुख देने वाला था। मम्मा के दृढ़ता भरे बोल सदैव औरों को भी दृढ़ संकल्पधारी बनाते थे। मम्मा की दृष्टि पाते ही कइयों को अशरीरीपन का अनुभव होता था। मम्मा की शीतल गोद जन्म-जन्मान्तर के विकारों की तपत बुझाने वाली थीं। अनोखा अनुभव होता था। मम्मा बाबा को फॉलो (अनुसरण) करने में नम्बर वन थीं इसलिए बाबा की सारी दिनचर्या सवेरे से लेकर रात तक कैसे चलती थी उसको सुनकर फॉलो करती थीं।

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चलते-चलते मम्मा हमारे से पूछती थीं, “बच्ची, बाबा को कितना याद करती हो? बाबा से कितना प्यार करती हो?” इस प्रकार, ज्ञान की लोरी के साथ योग का भी ध्यान खिंचवाती थीं। मम्मा जब दृष्टि देती थीं तो उनकी आँखें इतनी चमकती थीं जैसे कि उन आँखों से बाबा देख रहा हो। मम्मा की दृष्टि से उनका सम्पूर्ण स्वरूप दिखाई पड़ता था। मम्मा ऐसे लगती थीं कि वे यहाँ की नहीं हैं, वे ऊपर से आयी हैं। वे देहधारी नहीं लगती थीं, सूक्ष्म शरीरधारी लगती थीं। उनकी दृष्टि में इतनी ताकत थी कि जिसको भी वे देखती थीं उसके विचार ही बदल जाते थे।

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मम्मा कुशल प्रशासक के रूप में छोटी उम्र में ही यज्ञ-कारोबार की जिम्मेवारी सम्भालने के निमित्त बनीं और सभी के दिलों को जीत लिया। मम्मा सदैव कहा करती थीं कि किसी के भी अवगुणों का चिन्तन न कर, सदा गुणग्राही बनना चाहिए। सभी आत्माओं की विशेषताओं को देखो, हंस की तरह मोती चुगो।

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मातेश्वकरी जी का यज्ञ से बहुत स्नेह था। वे कहा करती थीं कि यज्ञ की कोई चीज़ बेकार नहीं जानी चाहिए। एक बार की बात है कि यज्ञवत्स गेहूँ साफ करके बोरी में भर चुके थे। कुछ गेहूँ इधर-उधर बिखरे हुए थे। मातेश्वारी जी ने ध्यान दिलाते हुए बड़े ही स्नेह से कहा कि एक-एक गेहूँ का दाना एक-एक मोहर के बराबर है। वे यज्ञ की एक-एक चीज़ की कीमत जानती थीं एवं बतलाती भी थीं। वे कुशल प्रबन्धक थीं। यज्ञवत्सों की स्थूल के साथ सूक्ष्म आध्यात्मिक पालना पर भी उनका विशेष ध्यान रहता था।